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हम दुखी क्यों हैं ?
२६६ बढा हुआ है, खूब सौदे होते हैं. असंतोष फैल रहा है और तृष्णाकी कोई हद नही । लोग मदिर-मूर्तियो और धार्मिक संस्थानों तकका माल हजम कर जाते हैं, देवद्रव्यको खा जाने और तीर्थोंका माल उडा जानेमें उन्हे कोई संकोच नहीं होता। इधर भूठी मान-बड़ाईके लोलुपी अथवा मिथ्या प्रतिष्ठाके उपासक,विधवानोंके गर्भ गिराकर या उनके नवजात बच्चोको, प्रसव गुप्त रखनेके अभिप्रायसे, वनउपवन, कूप-बावडी नदी-सरोवर या सडास आदिमे डालकर अथवा जीता गाडकर, गर्भपात और बालहत्यादिकके अपराधोकी संख्या बढा रहे हैं । और अब तो कही कहीसे रोगटे खडे करनेवाले ऐसे दुराचार भी सुननेमे आने लगे हैं कि एक प्रतिष्ठित पुरुष अपनी स्त्रीके पेटसे लडका पैदा करनेकी धुनमे, नही नही पागलपनमे, दूसरे मनुष्यके निर्दोष बच्चेको मारकर उसके गर्म गर्म खूनसे अपनी गर्भवती स्त्रीको नहलाता और खुश होता है । अोह । कितना भयकर दृश्य है 11 कितनी सदिली अथवा हृदयकी कठोरता है ।। धर्मका, श्रद्धाका, मनुष्यताका कितना दिवाला और आत्माका कितना अधिक पतन है ।।। खुदगरजीकी भी हद हो गई | || ये सब बातें धर्मके पतन और उसकी हममे अनुपस्थितिको दिनकर-प्रकाशकी तरहसे प्रकट कर रही हैं । ऐसी हालतमे 'हममेसे धर्म उठ गया' यह कहना कुछ भी अनुचित या बेजा नहीं है।
परतु फिर यह सवाल पैदा होता है कि धर्म क्यो उठ गया ? किन कारणोसे हम उसे छोडने अथवा उसकी तरफ पीठ देनेके लिए मजबूर हो रहे हैं ? क्यो उसके धारण या पालन करनेमें हमारी प्रवृत्ति नहीं होती ? और इसलिये हमारा दु ख क्यो बढ रहा है इस प्रश्नका यह उत्तर कि 'हममेसे धर्म उठ गया और रहा सहा भी उठता जाता है' ठीक होते हुए भी पर्याप्त नही है-काफी नही है। इतने परसे ही हमारी संतुष्टि अथवा भरपाई नहीं होती हमारे ध्यानमे अपने दु खोके कारणोका नकशा पूरी तौरसे नहीं बैठता