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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान २६१ हैं और चाहे जिसको नही । कई ऐसे जैन मन्दिर भी देखनेमें पाए हैं जिनमे ऊनी वस्त्र पहिने हुए जैनियोको भी घुसने नहीं दिया जाता। इस अनुदारता और कृत्रिम धर्मभावनाका भी कही कुछ ठिकाना है। ऐसे सब लोगोको खूब याद रखना चाहिये कि दूसरोके धर्म-साधनमे विध्न करना, बाधक होना, उनका मन्दिर जाना बन्द करके उन्हे देव-दर्शनादिसे विमुख रखना और इस तरह पर उनकी प्रात्मोन्नतिमे रुकावट डालना बहुत बडा भारी पाप है। अजनासुन्दरीने अपने पूर्व जन्ममे थोडे ही कालके लिये जिनप्रतिमाको छिपाकर अपनी सौतके दर्शन-पूजनमे अन्तराय डाला था, जिसका परिणाम यहाँ तक कटुक हुआ कि उसको अपने इस जन्ममे २२ वर्ष तक पतिका दु सह वियोग सहना पड़ा और अनेक सकट तथा प्रापदायोका सामना करना पड़ा, जिनका पूर्ण विवरण श्रीरविषेणाचार्य-कृत पद्मपुराणके देखनेसे मालूम हो सकता है। श्रीकुन्दकुन्दाचार्यने अपने 'रयणसार' ग्रन्थमे यह स्पष्ट बतलाया है कि 'दूसरोके पूजन और दान-कार्यमे अन्तराय (विघ्न) करनेसे जन्म-जन्मान्तरमे क्षय, कुष्ट, शूल, रक्तविकार, भगदर जलोदर, नेत्रपीडा शिरोवेदना आदि रोग तथा शीत-उष्णके आताप और कुयोनियोमे परिभ्रमण आदि अनेक दु खोकी प्राप्ति होती है । यथा -
खय-कुट्टसूलमूलो लोयभगदरजलोदरक्खिसिरो। सीदुरह बह्मराई पूजादाणतराय-कम्मफल ।। ३३ ॥
इसलिये जो कोई जाति-बिरादरी अथवा पचायत किसी जैनीको जैनमन्दिरमे न जाने अथवा जिनपूजादि धर्म कार्योसे वचित रखनेका दड देती है वह अपने अधिकारका अतिक्रमण और उल्लघन ही नही करती, बल्कि घोर पापका अनुष्ठान करके स्वय अपराधिनी बनती है। ऐसी जाति-बिरादरियोके पचोकी निरकुशताके विरूद्ध
आवाज उठनेकी ज़रूरत है और उसका वातावरण ऐसे ही लेखोंके द्वारा पैदा किया जा सकता है। आजकल जैन पचायतोने 'जाति