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२६२ युगवीर-निबन्धावली बहिष्कार' नामके तीक्ष्ण हथियारको जो एक खिलौनेकी तरह अपने हाथमें ले रक्खा है और बिना उसका प्रयोग जाने तथा अपने बलादिक और देश-कालकी स्थितिको पहचाने जहां तहाँ यद्वा तद्वा रूपमे उसका व्यवहार किया जाता है वह धर्म और समाजके लिये बडाही भयकर तथा हानिकारक है । इस विषयमे श्रीसोमदेवसूरि अपने 'यशास्तिलक' ग्रन्थ (शक स०८८१) मे लिखते हैं -
नवे सदिग्ध निर्वाहै विदग्धाद्गणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्य प्राप्ततत्त्व क्थं नर ।। यत समयकार्यार्थी नाना-पचजनाश्रय । अत सबोध्य यो यत्र योग्यस्त तत्र योजयेत् ।। उपेक्षाया तु जायेत तत्वाद्दूरतगे नर । तनस्तस्य भवो दीर्घ समयोपि च हीयते ।।
इन पद्योका प्राशय इस प्रकार है - ‘ऐसे ऐसे नवीन मनुष्योसे अपनी जातिकी समूह-वृद्धि करनी चाहिये जो सदिग्धनिर्वाह है-अर्थात् जिनके विषयमे यह सन्देह है कि वे जातिके आचार-विचारका यथेष्ट पालन कर सकेगे।(और जब यह बात है तब) किसी एक दोषके कारण कोई विद्वान जातिसे बहि ष्कारके योग्य कैसे हो सकता है ? → कि सिद्धान्ताचार-विषयक धर्मकार्योंका प्रयोजन नाना पचजनोके आश्रित है-उनके सहयोगसे सिद्ध होता है-अत समझाकर जो जिस कामके योग्य हो उसको उसमें लगाना चाहिये-जातिसे पृथक न करना चाहिये । यदि किसी दोषके कारण एक व्यक्तिकी-खासकर विद्वानकी - उपेक्षा कीजाती है-उसे जातिमे रखनेकी पर्वाह न करके जातिसे पृथक किया जाता है- तो इस उपेक्षासे वह मनुष्य तत्त्वसे बहुत दूर जा पडता है। तत्त्वसे दूर जा पडनेके कारण उसका ससार बढ जाता है और धर्मकी भी क्षति होती है--समाजके साथ साथ धर्मको भी भारीहानि उठानी पड़ती है, उसका यथेष्ट प्रचार और पालन नहीं हो पाता।'