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युगवीर-निबन्धावली
और न केवल जा ही सकते थे बल्कि अपनी शक्ति और भक्तिके अनुसार पूजाकरनेके बाद उनके वहाँ बैठनेके लिये स्थान भी नियत था, जिससे उनका जैन मन्दिरमे जानेका और ज्यादा नियत अधिकार पाया जाता है' । जान पडता है उस समय सिद्धकूट - जिनालय मे प्रतिमागृहके सामने एक बहुत बडा विशाल मंडप होगा और उसमें स्तभोके विभागसे सभी श्रार्य-अनार्य जातियोके लोगोके बैठनेके लिये जुदा जुदा स्थान नियत कर रक्खे होगे। आजकल जैनियोमें उक्त सिद्धकूट - जिनालय के ढंगका, उसकी नीतिका अनुसरण करनेवाला, एक भी जैन मन्दिर नही है । लोगोने बहुधा जैन मन्दिरोको देवसम्पत्ति न समझकर अपनी घरू सम्पत्ति समझ रक्खा है, उन्हे अपनी ही चहल-पहल तथा ग्रामोद-प्रमोदादिके एक प्रकारके साधन बना रखा है। वे प्राय उन महोदार्य सम्पन्न लोक - पिता वीतराग भगवान के मन्दिर नही जान पडते, जिनके समवसरणमे पशु तक भी जाकर बैठते थे। और न वहाँ, मूर्तिको छोडकर, उन पूज्य पिताके वैराग्य, प्रौदार्य तथा साम्यभावादि गुणोका कही कोई आदर्श ही नजर आता है। इसीसे वे लोग उनमे चाहे जिस जेनीको श्राने देते
१ श्री जिनसेनाचार्य ने ६ वी शताब्दी के वातावरण के अनुसार भी ऐसे लोगोका जैनमन्दिरमे जाना आदि आपत्तिके योग्य नहीं ठहराया और न उससे मंदिर अपवित्र हो जानेको ही सूचित किया। इससे क्या यह न समझ लिया जाय कि उन्होने ऐसी प्रवृतिका अभिनन्दन किया है अथवा उसे बुरा नही समझा ?.
२ चादनपुर श्रीमहावीरजी मन्दिरमे तो वर्षभरमे दो एक दिन के लिये यह हवा आ जाती है कि सभी ऊँच-नीच जातियोक लोग बिना किसी रुकावटक अपने प्राकृत वे षमे - जूते पहने और चमडे - के ढोल आदि चीजे लिए हुए वहाँ चले जाते है, और अपनी भक्तिके अनुसार दर्शन पूजन तथा परिक्रमण कर वापिस आते है ।