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जाति-पंचायतोंका दंड-विधान आजकल हमारे बहुधा जैनी भाई अपने अनुदार विचारोके कारण ज़रा ज़रासी बात पर अपने जाति-भाइयोको, जातिसे च्युत अथवा बिरादरीसे खारिज करके उनके धार्मिक अधिकारोमे भी हस्तक्षेप करके उन्हे सन्मार्गसे पीछे हटा रहे है, और इस तरह अपनी जातीय तथा सघ-शक्तिको निबल और नि सत्व बनाकर अपने ऊपर अनेक प्रकारकी विपत्तियोको बुलानेके लिये कमर कसे हुए है। लोगोको, चारुदत्त सेठके उदाहरण पर ध्यान देते हुए उसके साथ उस वक्तकी बिरादरीके किए हुए सलूक और उसके सत्फलको देखते हुए--दडविधानके ऐसे अवसरो पर बहुत ही सोच-समझ और गहरे विचार तथा दूरदृष्टिसे काम लेना चाहिए । यदि वे पतितोका स्वय उद्धार नही कर सकते हो तो उन्हे कमसे कम पतितोके उद्धारमे बाधक तो नही बनना चाहिये और न ऐसा अवसरही देना चाहिये जिससे पतितजन और भी अधिकताके साथ पतित हो जॉय । किसी पतित भाईके उद्धारकी चिन्ता न कर उसे जातिसे खारिज कर देना और उसके धार्मिक अधिकारोको भी छीन लेना ऐसा कर्म है जिससे वह पतित भाई सुधारका अवसर न पाकर और भी ज्यादा पतित हो जाय अथवा यो कहिये कि वह डूबतेको ठोकर मारकर शीघ्र डुबो देनेके समान है। तिरस्कारसे प्राय कभी किसीका सुधार नहीं होता