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युगवीर-निबन्धावली तरहके और भी कितने ही नमूने खोज करने पर मिल सकते है। कुछ उपजातियोमें तो अब भी अन्तर्जातीय विवाह होता रहता है। - ऐसी हालतमे इन अग्रवाल, खडेलवाल आदि जातियोमे परस्पर विवाह न होनेके लिये सिद्धान्तकी दृष्टिसे, क्या कोई युक्तियुक्त कारण प्रतीत होता है, इसका पाठक स्वय अनुभव कर सकते है । साथ ही, यह भी जान सकते है कि दो जातियोमे परस्पर विवाह सम्बध होनेसे उन जातियोका लोप होना अथवा जाति-पॉतिका मेटा जाना कैसे बन सकता है ? क्या दो भिन्न गोत्रोमे विवाह सम्बन्ध होनेसे वे मिट जाते हैं या उनका लोप हो जाता है ? यदि ऐसा कुछ नही होता लो फिर दो जातियोमे परस्पर विवाहके होनेसे उनके नाशकी आशका कैसे की जा सकती है ? अत इस प्रकारकी चिन्ता व्यर्थ है । जहाँ तक हम समझते हैं एक ही धर्म और आचारके मानने तथा पालनेवाली प्राय इन सभी उपजातियोमे परस्पर विवाहके होनेसे कोई हानि मालूम नही होती । प्रत्युत इसके, विवाह-क्षेत्रके विस्तीर्ण होनेसे योग्य सम्बन्धोंके लिये मार्ग खुलता है पारस्परिक प्रेम बढता है, योग्यताके बढानेकी ओर प्रवृत्ति होती है और मृत्युशय्यापर पडी हुई कितनी ही अल्पसख्यक जातियोकी प्रारणरक्षा भी होती है । वास्तवमे ये सब जातियाँ परिकल्पित और परिवर्तनशील है-एक अवस्थामे न कभी रही और न रहेगी-इनमे गो-अश्वादि जातियोजैसा परस्पर कोई भेद नहीं है और इसलिये अपनी जातिका अहकार करना अथवा उसे श्रेष्ठ तथा दूसरी जातिको अपनेसे हीन मानना मिथ्या है । प० आशाधरजीने भी, अपने अनगारधर्मामृत ग्रन्थ
और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें कुल-जाति-विषयक ऐसी अहकृतिको मिथ्या ठहराया है और उसे प्रात्म-पतनका हेतु तथा नीचगोत्रके बन्धका कारण बतलाया है। साथ ही, अपने इस मिथ्या ठहरानेका यह हेतु देते हुए कि 'परमार्थसे जाति-कुलकी शुद्धिका कोई निश्चय नहीं बन सकता'-यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक जाति अथवा