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युग्रवीर-निबन्धावली किया था और जिसके उल्लेखोंको विस्तार-भयसे यहाँ छोडा जाता है।
(४) इसी तरह पर हिन्दूधर्मके ग्रन्थोमे भी प्रतिलोमविवाहके उदाहरण पाये जाते हैं जिसका एक नमूना 'ययाति' राजाका उशना ब्राह्मण (शुक्राचार्य) की 'देवयानी' कन्यासे विवाह है। यथा -
तेषा ययाति पचानाविजित्य वसुधामिमाम् । देवयानीमुशनम मुता भार्यामवाप म ।।
-महाभा० हरि० अ० ३० वॉ इसी विवाहसे यदु' पुत्रका होना भी माना गया है, जिससे यदुवश चला। ___ इन सब उल्लेखोसे स्पष्ट है कि प्राचीन कालमे अनुलोमरूपसे ही नही किन्तु प्रतिलोम रूपसे भी प्रसवर्ण-विवाह होते थे । दायभागके ग्रन्थोंसे भी असवर्णविवाहकी रीतिका बहुत कुछ पता चलता है-उनमे ऐसे विवाहोसे उत्पन्न होने वाली. सतिके लिये विरासतके नियम दिये हैं, जिनके उल्लेखोको भी यहाँ विस्तार-भयसे छोड़ा जाता है । अस्तु, वर्णकी 'जाति' संज्ञा होने से असवर्ण विवाहोको अन्तर्जातीय विवाह भी कहते है। जब भारतकी इन चार प्रधान जातियोमे अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे तब इन जातियोसे बनी हुई अग्रवाल, खडेलवाल, पल्लीवाल, प्रोसवाल और परवार आदि उपजातियोमे, समान वर्ण तथा धमके होते हुए भी, परस्पर विवाह न होना क्या अर्थ रखता है और उसके होनेमे कौन सा सिद्धान्त बाधक है यह कुछ समझमे नही आता : जान पडता है यह सब आपसकी खीचातानी और परस्परके ईर्षाद्वेषादिका परिणाम हैवास्तविक हानि-लाभ अथवा किसी धार्मिक सिद्धान्तसे इसका कोई सम्बन्ध नहीं है । वरोंकी दृष्टिको छोडकर यदि उपजातियोकी दृष्टि को ही लिया जाय तो उससे भी यह नहीं कहा जा सकता कि पहले उपजातियोमें विवाह नहीं होता था। आर्य-जातिकी अपेक्षा म्लेच्छ