________________
२४६
युगवीर-निबन्धावली किन्तु शूद्रोंके साथ नही करना चाहिये । शूद्रोंका विवाह और पंक्तिभोजन शूद्रोके साथ होना चाहिये।
इस वाक्यके द्वारा यद्यपि, श्रीजिनसेनाचार्यके उक्त कथनसे भिन्न प्रथम तीन वर्षों के लिये शूद्रोंसे विवाहका निषेध किया गया है और उसे मत-विशेष कह सकते हैं, जो बहुत पीछेका मत है'-हिन्दुप्रोके यहाँ भी इस प्रकारका मत-विशेष पाया जाता है...परन्तु यह स्पष्ट है कि इसमे तीन वर्षों के लिये परस्पर रोटी-बेटीका खास तौरपर विधान किया गया है। और इससे अनुलोमविवाहके साथ साथ प्रतिलोमविवाहका भी खासा विधान पाया जाता है। अर्थात् क्षत्रियके लिये ब्राह्मणकी और वैश्यके लिये क्षत्रिय तथा ब्राह्मण दोनोकी कन्याप्रोसे विवाहका करना उचित ठहराया गया है । जैनकथाग्रन्थोसे भी प्रतिलोमविवाहका बहुत कुछ पता चलता है, जिसके दो एक उदाहरण नीचे दिये जाते है --
(१) वसुदेवजीने, जो स्वय क्षत्रिय थे, विश्वदेव ब्राह्मणकी क्षत्रिय-स्त्रीसे उत्पन्न 'सोमश्री' नामकी कन्यासे--उसे वेदविद्यामे जीतकर-विवाह किया था। जैसा कि श्रीजिनसेनचार्यकृत हरिवशपुराण (२३ वे सर्ग) के निम्न वाक्योसे प्रकट है --
अन्वये तत्तु जातेय क्षत्रियायां सुकन्यका । सोमश्रीरिति विख्याता विश्वदेवद्विजन्मिन ||४||
। १ क्योकि धर्मसग्रहश्रावकाचार' वि० स० १५४१ मे बनकर समाप्त हुआ है और इसलिये वह जिनसेन के हरिवशपुराण से ७०१ वर्ष बादका बना हुआ है।
२ अत्रि आदि ऋषियोके इस मत-विशेषका उल्लेख मनुस्मृत्तिके निम्न वाक्यमे भी पाया जाता है :
शूद्रावेदी पतत्यतथ्यतनयस्य च। शौनकस्य सुतोत्पत्या तदपत्यतया भृगो ॥ ३-१६ ।।