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' असवर्ण और अन्तर्जातीय विवाह २४५ ही हीन जातियोकी स्त्रियाँ उच्च जातियोंके पुरुषोके साथ विवाहित होने पर- अपने अपने भर्तारके शुभ गुणोके द्वारा इस लोकमे उत्कर्षको प्राप्त हुई हैं।" और उन दूसरी स्त्रियोके उदाहरणमे टीकाकार कुल्लूक भट्टजीने 'अन्याश्च सत्यवत्यादयो' इत्यादि रूपसे 'सत्यवती' के नामका भी उल्लेख किया है। यह 'सत्यवती,' हिन्दू शास्त्रोके अनुसार, एक धीवरकी- केवयं अथवा अन्त्यजकी-कन्या थी। इसकी कुमारावस्थामे परागर ऋषिने इससे भोग किया और उससे व्यासजी उत्पन्न हुए जो 'कानीन' कहलाते हैं। बादको यह भीष्मके पिता राजा शान्तनुसे व्याही गई और इस विवाहसे 'विचित्रवीर्य' नामका पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसे राजगद्दी मिली और जिसका विवाह राजा काशीराजकी पुत्रियोसे हमा। विचित्रवीर्यके मरने पर उसकी विधवा स्त्रियोंसे व्यासजीने, अपनी माता सत्यवतीकी अनुमतिसे, भोग किया और पाण्डु तथा धृतराष्ट्र नामके पुत्र पैदा किये, जिनसे पाण्डवो आदिकी उत्पत्ति हई।
इस तरह पर हिन्दूशास्त्रोमे हीन-जातिकी अथवा शूद्रा स्त्रियोसे विवाहके कितने ही उदाहरण पाये जाते हैं और उनकी सततिसे अच्छे अच्छे पुरुषो तथा वशोका उद्भव होना भी माना गया है। और जैनशास्त्रोसे म्लेच्छ, भील तथा वेश्या-पुत्रियों जैसे हीनजातिके विवाहोके उदाहरण विवाहक्षेत्र-प्रकाशके 'ग्लेच्छोसे विवाह' आदि प्रकरणोमे दिये गये हैं। इन सब उल्लेखोसे प्राचीनकालमे अनुलोमरूपसे असवर्ण विवाहोका होना स्पष्ट पाया जाता है।
अब प्रतिलोमविवाहको भी लीजिये । धर्मसंग्रहश्रावकाचारके हवे अधिकारमे लिखा है -
परस्पर त्रिवर्णाना विवाह पक्तिभोजनम् । कर्तव्य न च शूद्वैस्तु शुद्राणा शद्रकै सह ॥२५६।। अर्थात्-प्रथम तीन वर्णवालो (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्यो) को आपसमे एक दूसरेके साथ विवाह और पंक्ति-भोजन करना चाहिये