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युगबीर-निबन्धाकली -समय एक गोत्रमें विवाह होनेका रिवाज था । साथ ही, उक्त पुराणसे इस बातका भी पता चलता है कि पहले सगे भाई बहनोंकी पोलादमें जो परस्पर विवाह-सम्बन्ध हुआ करता था उसका एक कारण अथवा उद्देश्य 'गोत्रप्रीति' भी होता था। यथा -
नीलस्तस्य सुनः कन्या मान्या नीलाजनाभिधा। कुमारकन्ययोता सकथा च तयोरिति । ४|| पुत्रो मे ते यदा कन्या भविता भविता तयोः । अविवादे विवाहोऽत्र गोत्रप्रीत्यै परस्परम् ॥ ५॥
-~२३ वॉ मर्म इन पद्योमे नील और नीलाजना नामके दो सगे भाई बहनोके इस ठहरावका उल्लेख किया गया है कि 'यदि मेरे पुत्र और तुम्हारे पत्री होगी तो गोत्रमे प्रीतिकी वृद्धिके लिये उन दोनोका निर्विवाद रूपसे परस्परमे विवाह कर देना होगा।'
परन्तु आजकल गोत्र-प्रीतिकी बात तो दूर रही, एक गोत्रमे विवाह करना 'गोत्र-धात' अथवा 'गोत्रघाव' समझा जाता है । जैनियोकी कितनी ही जातियोमें तो, विवाहके अवसरपर, पिताके गोत्रके अतिरिक्त माता, माताके मामा, और पिताके मामा आदि तकके गोत्रोको भी टालनेकी फिकर की जाती है - कही चार चार और कही पाठ आठ गोत्र बचाये जाते हैं - और इसतरह पर मामाफूफीकी कन्याप्रोसे विवाह करनेके प्राचीन प्रशस्त विधानसे इनकार ही नही किया जाता बल्कि उनके गोत्रो तकमे विवाह करनेको अनुचित ठहराया जाता है। मालूम नही इस सब कल्पनाका क्या प्राधार है-वह किस सिद्धान्त पर अवलम्बित है और इन गोत्रोके बचानेसे उस सिद्धान्तकी वस्तुतः कोई रक्षा हो जाती है या कि नहीं। शायद सगोत्र-विवाहको अच्छी तरहसे टालनेके लिये ही यह सब कुछ किया जाता हो, परन्तु गोत्रको वर्तमान स्थितिमें, वास्तविक दृष्टिसे, सगोत्रविवाहका टालना कहां तक बन सकता है, इसे पाठक