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गोत्र-स्थिति और सगोत्र-विवाह २३६ कहना पडता है कि भिन्न भिन्न गोत्रके स्त्री-पुरुषोके सम्बधसे संकरगोत्री सतान उत्पन्न होती है और उस सकरताकी उत्तरोत्तर वृद्धि होते रहनेसे किसी भी गोत्रका अपनी शुद्ध-स्थितिमे उपलब्ध होना प्राय अमभव है । गोत्रोकी इस कृत्रिमता और परिवर्तनशीलताकी कितनी ही सूचना भगवज्जिनसेनाचार्यके निम्न वाक्यसे भी मिलती है और उससे यह साफ मालूम होता है कि.जैनधर्ममे दीक्षित होने पर-जैनोपासक अथवा श्रावक बनते हुए-अजैनोके गोत्र और जाति आदिके नाम प्राय बदल जाते थे- उनके स्थानमे दूसरे समयोचित नाम रक्खे जाते थे। यथा -
जैनोपासकटाक्षा स्यात्ममय समयोचितम् । दधतो गोत्रजात्यादिनामान्तरमत परम् ॥५६॥
-आदिपुराण, ३६ वाँ पर्व ऐसी हालतमे गोत्रोकी क्या असलियत है उनकी स्थिति कितनी परिकल्पित और परिवर्तनशील है-और उन्हे विवाह शादियोंके अवसर पर कितना महत्त्व दिया जाना चाहिये इसका पाठक स्वय अनुभव कर सकते है । पहले ज़मानेमे गोत्रोको इतना महत्त्व नहीं दिया जाता था जितना कि वह आज दिया जाता है।
यहाँ पर मैं इतना और बतला देना चाहता हूँ कि श्रीजिनसेनाचार्यके हरिवंशपुराणसे जहाँ यह पाया जाता है कि देवकी और वसुदेव दोनो यदुवंशी थे, एक कुटुम्बके थे, दोनोमे चचा-भतीजीका सम्बध था और इसलिये उनका पारस्परिक विवाह सगोत्र-विवाहका एक बहुत बड़ा प्रमाण है, वहाँ यह भी मालूम होता कि हरिवशी राजा वसु' के एक पुत्र 'वृहद्ध्वज' की सततिमे यदुवंशी राजा उग्रसेन हुआ, दूसरे पुत्र 'सुवसु' की सततिमे जरासध हुआ और जरासधकी बहन पद्मावती उग्रसेनसे व्याही गई। इससे जाहिर है कि राजा वसुके एक वश और एक गोत्र मे होनेवाले दो व्यक्तियोका परस्पर विवाह-सम्बध हुा । और इससे यह जाना जाता है कि उस