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जातिभेद पर अमितगति प्राचार्य जैनसमाजमे 'अमितगति' नामके एक प्रसिद्ध आचार्य हो गये है। इनके बनाये हुए उपासकाचार, सुभाषितरत्नसदोह और धर्मपरीक्षा आदि कितने ही ग्रन्थ मिलते हैं और वे सब प्रादरकी दृष्टिसे देखे जाते हैं। ये आचार्य आजसे कोई ६५० वर्ष पहले-विक्रमकी ११वी शताब्दीमे-राजा मुजके समयमे हुए हैं और इन्होने धर्मपरीक्षा ग्रन्थको विक्रम सवत् १०७० में बनाकर समाप्त किया है । इस ग्रन्थके १७वे परिच्छेदमे आपने जातिभेद पर कुछ महत्वके विचार प्रकट किये है, जो सर्व साधारणके जानने योग्य हैं । अत नीचे पाठकोको उन्हीका कुछ परिचय कराया जाता है -
न जातिमात्रतो धर्मो लभ्यते देहधारिभि ।।
सत्यशौचतपशीलध्यानस्वाध्यायवर्जित ॥ २३ ॥ 'जो लोग सत्य, शौच, तप, शील, ध्यान और स्वाध्यायसे रहित है उन्हे जातिमात्रसे-महज किसी ऊँची जातिमे जन्म लेलेनेसेधर्मका कोई लाभ नही हो सकता।'
भावार्थ - धर्मका किसी जातिके साथ कोई अविनाभावी सबध नहीं है, किसी उच्च जातिमे जन्म लेलेनेसे ही कोई धर्मात्मा नही बन जाता । अथवा यो कहिये कि सत्य-शौचादिकसे रहित व्यक्तियोको उनकी उच्च जाति धर्मकी प्राप्ति नहीं करा सकती । प्रत्युत इसके,