________________
२२८
युगवीर-निबन्धावली विवाह' नामक प्रकरणमे किया गया है । गोत्रों में अन्य प्रकारसे कैसे स्खलन होता है, उनकी धारा कैसे पलट जाती है और वे कैसी विचित्र स्थितिको लिये हुए हैं, इस बातको सविशेष रूपसे जाननेके लिये विवाहक्षेत्रप्रकाशका मोत्रस्थिति और सगोत्रविवाह' नामका प्रकरण देखना चाहिये।
सयमो नियम शील तपो दान दमो दया । विद्यन्ते तात्त्विका यस्या सा जातिमहती सताम् ॥२६॥ 'सत्पुरुषोकी दृष्टिमे वह जाति ही बडी अथवा ऊंची है जिसमें सयम, नियम शील. तप दान, दम (इन्द्रियादिनिग्रह) और दया ये गुरण वास्तविक रूपसे विद्यमान होते है-बनावटी रूपसे नहीं।'
भावार्थ---इन गुणोका यथार्थमे अनुष्ठान करनेवाले व्यक्तियोंके समूहको ही ऊंची जाति कहते हैं। और इसलिये जो व्यक्ति सचाईके साथ इन धर्मगुरगोका पालन करता है उसे ऊँची जातिका अग समझना चाहिये--भले ही वह नीच कहलानेवाली जातिमे ही क्यो न उत्पन्न हा हो । उपयुक्त गुण ऐसे हैं जिन्हे सभी जातियोंके व्यक्ति धारण कर सकते है और वे धारण करनेवाले व्यक्ति ही उस महती जातिका निर्माण करते है जो प्राचार्यमहोदयकी कल्पनामें स्थित है।
दृष्टा योजनगन्धादि प्रसृताना तपस्विनाम् । व्यामादीना महापूजा तपसि क्रियता मति ॥३०॥
(धीवरादि नीच जातियोकी) योजनगधादि स्त्रियोसे उत्पन्न व्यासादिक तपस्वियोंकी लोकमे महापूजा देखी जाती है-यह सब तप-सयमादि गुणोका ही माहा म्य है । अत तप सयमादि गुणोकी प्राप्तिका ही यत्न करना चाहिये-उससे जाति स्वय ऊंची उठ जायगी।
भावार्थ-नीच जातिकी स्त्रियोसे उ-पन्न व्यक्ति यदि नीच जातिके ही रहते और नीच ही समझे जाते तो व्यासजी जैसे तपस्वी,