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अपमान या प्रत्याचार ?
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हेतुका विधान कर सके। इसीलिये स्वप्नकी यह सपूर्ण घटना आज पाठकोंके सामने रक्खी जाती है। विद्वानोको चाहिये कि वे इस पर गहरा विचार करके अपने अपने विचार-फलको युक्ति के साथ प्रगट करे। यदि उन्हे भी उक्त प्रथाकी उपयुक्तता मालूम न दे और वे उसे जारी रखनेमे पुरुषोका ही दोष अनुभव करे तो उनका यह कर्तव्य होना चाहिये कि वे पुरुषजातिको इस कलक तथा पापसे मुक्त करानेका भरसक प्रयत्न करे ।
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१ यह स्वप्न मुझे आजसे कोई ३८ वर्ष पहले नानौता ( जि० सहारनपुर ) मे प्राया था और श्रनेके बाद ही १ मई सन् १९२४ को वर्तमान रूपमे लिख लिया गया था। एक-दो पत्रोमे उस समय इमे प्रकाशित भी किया था; जैसे जुलाई सन् १३२४ के 'परवारबन्धु' मे ।