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अपमान या अत्याचार ?
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सकते तो यह उन्हीका दोष है। उन्हे उसका परिमार्जन अपनेही मुँह पर बुर्का डालकर अथवा घूँघट निकालकर क्यो न करना चाहिये यह कहाँका न्याय है कि अपराध तो करे पुरुष और सजा उसकी दी जाय स्त्रियोको ? यह तो 'अधेर नगरी और चौपट राजा' वाली कहावत हुई - एक मोटा अपराधी यदि फॉसीकी रस्सीमे नही आता तो किसी पतले-दुबले निरपराधीको ही फाँसी पर लटका दिया जाय ! कैसा विलक्षण न्याय है || क्या स्त्रियोको प्रबला और कमज़ोर समझकर ही उनके साथ यह सलूक ( न्याय ) किया गया है ? और क्या न्यायसत्ता पानेका यही उपयोग है और यही मनुष्यका मनुष्यत्व है ? मैं तो इसे मानव जाति और उच्च सस्कृतिके लिये महान् कलक समझती हूँ ।'
'स्त्रियाँ पर्दे मे रहने की वजहसे अपने स्वास्थ्य, अपनी, जानकारी अपनी संस्कृति और अपनी आत्मरक्षा वगैरहकी कितनी हानियाँ उठाती हैं, क्या इसका आपने कभी अनुभव नही किया ? मैंने तो ऐसी सैकडो स्त्रियोको देखा है जो घूँघट निकाले हुए प्रधोकी तरहसे चलती हैं, मार्गमे घोडा, गाडी, आदमी तथा दर - दीवार और वृक्षसे टकरा जाती हैं ईंट पत्थर लकडीसे ठोकर खाजाती हैं, मार्ग भूलकर इधर उधर भटकने लगती है, किसी आक्रमणकारीसे अपनी रक्षा नही कर सकती, और इस तरह बहुत कुछ दु ख उठाती हुईं अपनी उस घूँघटकी प्रथा पर खेद प्रकट करती है । उन्हे यह भी मालूम नही होता कि ससार मे क्या हो रहा है और देश तथा राष्ट्रके प्रति हमारा क्या कर्तव्य है । वे प्राय मकानकी चारदीवारीमे बन्द रह कर उच्च सस्कारोके विकास के अवसरसे वचित रह जाती है, इतना ही नही बल्कि अपने स्वास्थ्यको भी खो बैठती हैं । ऐसी स्त्रियाँ अपनी सतानका यथेष्ट रीति से पालन-पोषण भी नही कर सकती और न उसे ठीक तौरसे शिक्षित ही बना सकती हैं। मैं तो जेलखानेके एक आजन्म कैदीकी और उनकी हालतमें कुछ भी अन्तर नही देखती ।