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अपमान या अत्याचार १
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सोचना ही चाहता था कि वह विदुषी स्त्री स्वत ही बोल उठी'या तो यह कहिये कि आप लोगोका स्त्रियोपर विश्वास नही है । आप यह समझते हैं कि स्त्रियाँ पुरुषोको देखकर कामबारणसे विकल हो जाती हैं, उनके मनमे विकार प्राजाता है और व्यभिचारकी ओर उनकी प्रवृत्ति होने लगती है । उसीकी रोकथाम के लिये यह घूँघटकी प्रथा जारी की गई है । यदि ऐसा है तो यह स्त्री जातिका घोर अपमान है। स्त्रियाँ स्वभावसे ही पापभीरु तथा लज्जाशील होती हैं, उनमें धार्मिक निष्ठा पुरुषोसे प्राय अधिक पाई जाती है । चित्त भी उनका सहज ही विकृत होनेवाला नही होता । उन्हे व्यभिचारादि कुमार्गीकी र यदि कोई प्रवृत्त करता है तो वह प्राय पुरुषोकी स्वार्थपूर्ण चेष्टाएँ और उनकी विवेक्शून्य क्रियाएँ तथा निरकुश प्रवृत्तियाँ ही है, जिससे किसी भी विचारशील तथा न्यायप्रिय व्यक्तिको इनकार नही हो सकता। और अब तो प्राय सभी विवेकी तथा निष्पक्ष विद्वान इस सत्यको स्वीकार करते जाते है । ऐसी हालत मे स्त्रियोपर उपर्युक्त कलकका लगाया जाना बिल्कुल ही निमूल प्रतीत होता है । और वह निर्मूलता और भी अधिकता के साथ सुदृढ तथा सुस्पष्ट हो जाती है जबकि भारत और भारत से बाहरकी उन दक्षि
गुजराती, पारसी तथा जापानी आदि उच्च जातियोके उदाहरणोको सामने रखा जाता है जिनमे घूँघटकी प्रथा नही है और जिनकी स्त्रियोके चरित्र बहुत कुछ उज्ज्वल तथा उदात्त पाये जाते हैं । आपका भी नित्य ही ऐसी कितनी ही स्त्रियोसे साक्षा कार होता है। और दे खुले मुँह प्रापको देखती है। बतलाइये, उनमेसे ग्राज तक कितनी स्त्रियाँ आपपर अनुरक्त हुई और उन्होने आपसे प्रेम - भिक्षाकी याचना की ? उत्तर 'कोई नही' के सिवाय और कुछ भी न होगा । आपने स्वत ही दृष्टिपातके अवसर पर इस बातका अनुभव किया होगा कि उनमे कितना सकोच और कितनी लज्जाशीलता होती है । विकारकी रेखा तक उनके चेहरे पर नही प्राती । पर्दा उनकी प्रांखोमें