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युगवीर-निबन्धावली ही समाया रहता है, जिस पर उन्हें स्वतत्रताके साथ अधिकार होता है और वे यथेष्ट रीतिसे उक्त अधिकारका प्रयोग करती हैं। उन्हें कृत्रिम पर्देकी- उस बनावटी पर्देकी जिसमे लालसा भरी रहती है और जो चित्तको उद्विग्न तथा शकातुर करनेवाला है-जरूरत ही नहीं रहती।
और इसलिये यह कहना कि पुरुषोको देखकर स्त्रियोका मन स्वभाव से ही विकृत होजाता है-वे दुराचारकी ओर प्रवृत्ति करने लगती हैंकोरी कल्पना और स्त्रीजातिकी अवहेलनाके सिवाय और कुछ भी नही है । इस प्रकारकी बातोसे स्त्रीजातिके शीलपर नितान्त मिथ्या आरोप होता है और उससे उसके अपमानकी सीमा नहीं रहती। साथ ही, इस बातकी भी कोई गारटी नही है कि जो स्त्रियों पर्दमे रहती हैं वे सभी उज्ज्वल-चरित्रवाली होती हैं, ऐसी बहुतसी स्त्रियोके बड़े ही काले चरित्र पाये गये है। प्रत घूघटकी प्रथाको जारी रखनेके लिये उक्त हेतुमे कुछ भी सार अथवा दम नजर नही आता ।'
जरासी देर रुककर और मेरे मुखकी ओर कुछ प्रतीक्षा-दृष्टिसे देखकर वह उदारचरिता फिर बोली--
'यदि आप ऐसा कहना नहीं चाहते और न उक्त हेतुका प्रयोग करना ही आपको इष्ट मालूम देता है तो क्या फिर आप यह कहना चाहते है कि-'पुरुषोका मन स्त्रियोको देखकर द्रवीभूत हो जाता है, पुरुष नवनीतके समान और स्त्रियाँ अगारेके सदृश है-"अगारसदृशी नारी नवनीतसमा नरा"-अगारोके समीप जिस प्रकार घी पिघल जाता है उसी प्रकार स्त्रियोके दर्शनसे पुरुषोका मन चलायमान होजाता है विकृत हो उठता है । उसी मनोविकारको रोकनेके लिये-उसे उत्पन्न होनेका अवसर न देनेके लिये ही यह घूघट निकलवाया जाता है अथवा पर्दा कराया जाता है। यदि ऐसा है तो यह स्त्रियोपर घोर अत्याचार है। स्त्रियोको देखकर पुरुषोकी यदि सचमुच ही लार टपक जाती है, उनमें इतना ही नैतिक बल है और वे इतनेही पुरुषार्थके धनी हैं कि अपनी प्रकृतिको स्थिर भी नही रख