________________
उपासना-तत्त्व
१६६
-
समाजके साक्षर व्यक्तियोंके द्वारा ऐसे विद्वानोंके द्वारा भी जो अनेक बार बडी प्रबल युक्तियो और जोरोके साथ मूर्तिपूजाका मडन कर चुके हो - इस समूची उपासना या इसके किसी एक अगका विरोध क्यों होने लगता है ? यह एक प्रश्न है जो नि सन्देह विचारणीय है । हमारी रायमें इसका सीधा सादा उत्तर यही हो सकता है कि, जब उपासना अपने उद्देश्योंसे गिर जाती है, अथवा लक्ष्यसे भ्रष्ट और प्रादर्शसे च्युत होकर कोरी बुतपरस्ती रह जाती है, उसमे भाव नही रहता वह प्राय प्रारणरहित हो जाती है उसके लिये किरायेके प्रादमी रखनेकी नौबत या जाती है, उपासनाके नामपर ममाजमें सूखा क्रियाकाड फैल जाता है, उसकी तहमे अनेक प्रकारके प्रत्याचारोकी वृद्धि होने लगती है, उसमें व्यर्थके ग्राडम्बर बढ जाते हैं और समाजकी शक्तिका दुरुपयोग होने लगता है, तब वह उपासना तात्त्विक दृष्टिसे उपयोगी होते हुए भी व्यावहारिक दृष्टिसे उपयोगी नही रहती और इसलिये उसका विरोध प्रारम्भ हो जाता है । विरोध करनेवालोका मुख्य उद्देश्य उस समय प्राय यही होता है कि, यदि समाजकी इस उपासनामें कुछ भी प्रारण अवशिष्ट है तो उसे सजीवित किया जाय, अनेक प्रकारके उपायो द्वारा-उपासना तत्त्वकी पुटे देकर-उसमें अधिक प्रारणका सचार किया जाय, और यदि प्रारण बिल्कुल नही रहा है और न फिरसे उसका सचार हो सकता है तो उसके साथ उस मृतकशरीर-जैसा व्यवहार किया जाय जो अत्यन्त प्यारा और उपयोगी होते हुए भी प्राणरहित हो जानेपर घरमे नही रक्खा जा सकता । प्रथवा यो कहिये कि अपने विरोधके द्वारा वे यही सूचित करते हैं कि, उपासनाके शरीरमे अमुक अमुक खराबियाँ उत्पन्न हो गई हैं - उसके ढग विगड गये हैं - उन्हें शीघ्र दूर किया जायसुधारा जाय- नही तो समूचे शरीरके नष्ट हो जानेका भय है, या शरीरका प्रमुक अङ्ग गल गया है उसका यदि प्रतिकार नही हो सकता तो उसे अलग कर दिया जाय, नही तो उसके ससर्गसे दूसरा
-