________________
उपासनाका ढग
.
२०३
द्धातोंके प्रतिकूल भी ) यह समझा जाने लगा कि वे भी बुलानेसे आते, बिठलानेसे बैठते, ठहरानेसे ठहरते और पूजनके बाद रुखसत करने पर अपना यज्ञ-भाग लेकर चले जाते है,जैसा कि पूजनके अत्र अवतर अवतर तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ' इत्यादि पाठो और विसर्जनके निम्न पाठसे प्रगट है
'पाहता ये पुरा देवा लब्धभागा यथाक्रम ।
ते मयाऽभ्यर्चिता भक्त्या सर्वे यान्तु यथास्थितिम् ।। ऊपरकी यह बात जैनसिद्धान्तोंके अनुकूल न होते हुए भी समाजमे प्रचलित हो गई और किसी प्रकारसे उपासनाका एक अग बन गई । अस्तु, अब मदिरोको लीजिये। मदिरोके निर्माण करने में मूर्तिकी रक्षा आदिके सिवाय 'लोकसग्रह' का गहरा तत्व छिपा हुआ था, जिसे बादको लोगोने भुला दिया और अपनी अपनी मानकषाय, नामवरीकी इच्छा या कुछ सुभीते आदिके खयालसे विना जरूरत भी एक स्थानपर बहुतसे मदिरोके निर्माण-द्वारा सघशक्तिको बाँटकर-उसके टुकडे टुकडे करके-उक्त तत्त्वकी उपयोगिताको नष्टभ्रष्ट कर दिया। इसी तरह मदिरोमें छोटी छोटी मूतियोकी समूहवृद्धिने उपासकोके हृदयमे यह खलबली उत्पन्न कर दी कि वे कितने समयमें किस किस मूर्तिकी उपासना करे, किसका ध्यान लगावें और किस परसे परमात्माका चिन्तन करें । अत ऐसे स्थानो पर दो एक शब्दोको बुडबुडाने और आगे सरकनेका ही काम रह गया, मूर्ति परसे परमात्माके ध्यान और चिन्तनकी बात प्राय जाती रही । साथ
१ इस पद्यमे विसर्जन करते हुए कहा गया है कि 'जिन जिन देवोको मैंने पहले बुलाया है वे सब भक्तिपूर्वक मेरे द्वारा पूजे जाने पर अब अपने अपने यज्ञ-भागको लेकर क्रमसे अपने अपने स्थान जालो'।
यह पद्य भी जैनेतर-हिन्दू-पूजापद्धतिका पद्य है, जो किसी तरह अपनी पूजापद्धतिमे शामिल होगया है।