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युगवीर-निबन्धावली ही मूर्तियोको मांग बढ़नेसे उनकी निर्माण-विधिमे शिथिलता आगई। पहले मूर्ति बनानेवाला और बनवानेवाला दोनो मूतिके तैयार होने तक जिम यम-नियमादिके साथ रहते थे और जिस विधिविधानके साथ पाषाणको उसकी खानसे जाकर लाते थे वह सब बात उठ गई, शिल्पियोकी दुकाने खुल गई जिनमे हर समय मूर्तियाँ तैयार मिलने लगी और लोभी प्रतिष्ठाचार्य कुछ दक्षिणा लेकर या वैसे ही अपने अज्ञानादि भावोसे प्रेरित होकर उन्हे पास करने लगे। नतीजा जिसका यह हुआ कि उपासनामे वह भाव नहीं रहा जो होना चाहिये था और कितने ही स्थानोपर ऐसी बेडौल, भद्दी तथा प्रशास्त्रसम्मत मूर्तियाँ भी पाई जाने लगी जिन्हे देखकर ध्यान जमनेके बजाय उलटा उखड जाता है।
जैनियोके मदिर, पहले आमतौर पर, बहत कुछ सादा और आडम्बररहित होते थे और उनमें उपासनाके उद्देश्योकी सहायक तथा साम्य-भावकी पोषक सामग्री ही विशेष रहा करती थी। परतु जब देशके दूसरे समाजोके मदिरोमे आडम्बरोकी वृद्धि हुई, शानशौकत अथवा राजसी ठाठ-बाटोने अपना रग जमाया, उनमे अनेक प्रकारके रास, नाटक, खेल, तमाशे होने लगे और उन्हे देखनेके लिये जैनी भी खिच-खिच कर वहाँ जाने लगे, तब जैनियोके मदिरोका भी नकगा बदल गया, उनमे भी गाने बजाने और नाचनेका सामान जोडा गया, आपसमे एक दूसरेसे मुकाबला होने लगा और प्रतिस्पर्धा बढ गई। साथमे, कुछ अदूरदृष्टता भी शामिल हो गई । नतीजा इस सबका यह हुआ कि उपासनाका भाव दिन पर दिन क्म होता गया, कोरी नुमायश, लोक-दिखावा और रूढिका पालन रह गया और उसने बीतराग भगवानकी उपासनाके लिये भी नौकरोकी जरूरत उपस्थित करदी । मदिरोकी सजावट उस वक्तसे आज तक इतनी बढ गई है कि उसके कारण दर्शकोका मन मूर्तिके वीतराग-भावको ग्रहण करनेकी ओर बहुत ही कम प्रवृत्त होता है, उसे अवसर ही