________________
उपासनाका ढग
:०५
नहीं मिलता, वह इधर उधरके सुनहरे कामो और रागवर्धक चित्रोमे ही उलझा रहता है।
पूजन-साहित्यका भी ऐसा ही हाल है। वह भी इसी चक्करमे पडकर बहुत कुछ बदल गया है। पूराने ग्रन्थ इस विषयमे आजकल बहुत ही कम उपलब्ध है और जो मिलते है उनके और आधुनिक पूजा-ग्रन्थोके भावोमे बहुत बडा अन्तर है। प्राचीन भक्ति-पाठोका प्रचार भी अब बहुत ही कम देखनेमे आता है । आजकल वे ही पूजापुस्तक ज्यादा पसद की जाती हैं जो अपनी छन्द-सष्टिकी दृष्टिसे गाने-बजानेमे अधिक उपयोगी होती है । चाहे उनका साहित्य और उसमे उपासनाका भाव कितना ही घटिया क्यो न हो लोगोका ध्यान प्राय स्वर, ताल और लयकी ओर ही विशेष रहता है,अर्थावबोधके द्वारा परामा माके गुरगोमे अनुराग बढानेकी अोर नही । और भी कितनी ही बातें हैं जो स्वतत्र लेखो-द्वारा ही प्रगट की जा सकती हैं। विज्ञपाठक इतने परसे ही समझ सकते हैं कि हमारी उपासनाका ढग समय-समयकी हवाके झकोरोसे कितना बदल गया है। उसके बदलनेमे कोई हानि न थी, यदि वह उपासना-तत्वके अनुकूल बना रहता । परतु ऐसा नहीं है, वह कितने ही अशोमे उपासनाके मूल सिद्धान्तो तथा उद्देश्योसे गिर गया है, और इसलिये इस समय उसको सभालने उठाने तथा उद्देश्यानुकूल बनाकर उसमे फिरसे नवजीवनका सचार करनेकी बडी ज़रूरत है । समाजहितैषियोको चाहिए कि वे इस विषयमे अपना मौन भग करे अपनी लेखनी उठाएँ,जनताको उपासना-तत्त्वका अच्छा बोध कराते हुए उसकी उपासनाविधिके गुण-दोषोको बतलाएँ–सम्यक् पालोचना-द्वारा उन्हे अच्छी तरहसे व्यक्त और स्पष्ट करे--और इस तरह उपासनाके वर्तमान ढगमे समुचित सुधारको प्रतिष्ठित करनेके लिये जी-जानसे प्रयत्न करे । ऐसा होनेपर समाजके उत्थानमें बहुत कुछ प्रयति हो सकेगी।