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युगवीर-निबन्धावली त्वया ज्वलितकेवलेन न हि देशिता किन्तु तास्त्वयि प्रमनमक्तिमि स्वयमनुष्ठिता श्रावकै ॥
पात्रो सरिस्तोत्र और इसलिये उपासनाके जो विधिविधान आज प्रचलित हैं वे बहुत पहले प्राचीन समयमे भी प्रचलित थे ऐसा नही कहा जा सकता । उनमे देश-कालानुसार बराबर परिवर्तन होता रहा है । आज भी सपूर्ण देशोमें और सपूर्ण सम्प्रदायोमे एक ही प्रकारकी उपासना-विधि नही पाई जाती । जैनियोमे तेरह और बीसपथका भेद बहत ही स्पष्ट है और वह बहत कुछ आधुनिक है। एक समय था जब कि जैनाचार्य वचन और शरीरको अन्य व्यापारोसे हटाकर उन्हें अपने पूज्यके प्रति. स्तुति-पाठ करने और अजलि जोडने आदि रूपमें, एकाय करनेको 'द्रव्यपूजा' और उसी प्रकारसे मनके एकाग्र करनेको 'भावपूजा' मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्यके निम्न वाक्यसे प्रकट है--
वचोविग्रह-सकोचो द्रब्यपूजा निगद्यते ।
तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनै ।। (उपासकाचार) इसके बाद वह समय भी आया जब कि देशमें नैवेद्य, दीप, धूप और फल-पुष्पादिकके द्वारा देवतामोकी पूजाने जोर पकडा और वही द्रव्यपूजा कहलाई जाने लगी । हिन्दू देवतामोके सदृश जिनेंद्रदेवोका भी आवाहन और विसर्जनादिक होने लगा और ( जैनसि
१ इसमे बतलाया है कि 'विमोक्ष-सुख के लिये चैत्य-चैत्यालयादिकका निर्माण, दानका देना, पूजनका करना, इत्यादि रूपसे जितनी क्रियाएं है और जो अनेक प्रकारसे त्रम-स्थावर प्राणियोके मरण तथा 'पीडनकी कारणीभूत है उन सब क्रियाअोका हे केवलज्ञानी भगवान ।
आपने उपदेश नही दिया, बल्कि आपक भक्तजन श्रावकोने स्वय ही (आपकी भक्ति आदिके वश ) उनका अनुष्ठान किया है।'