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२०० - युगवीर-निबन्धानली अङ्ग भी खराब हो जायगा, इत्यादिक । जब समाजकी तरफसे इस बिरोधकी कुछ सूनाई नहीं होती बल्कि उलटी खीचातानी बढ़ जाती है- समाज अपने दोपोपर विचार नहीं करता और न अपनी उपासनामें जीवन-सचार करनेका कोई उपाय करता है, बल्कि उसे ज्योका त्यो अस्वस्थ दशामेही रखना चाहताह और इस तरह उसकी हालत खराबसे खराबतर (ज्यादा खराब) होन लगती है-तब विरोध अपना उग्ररूप धारण कर लता है और उसके कारण हेयादेयका विचार नष्ट होकर, उपासनाके उन अच्छे अच्छ स्वस्थ अगोको भी धक्का पहुँच जाता है जिनको धक्का पहुँचाना विरोधकारियोको कभी इष्ट नहीं होता, और इस तरह एक अच्छी पोर उपयोगी सस्था समाजके दोषसे बहुत कुछ नष्ट-भ्रष्ट हो जाती है और भावी सतति उसके समुचित लाभोमे वचित ही रह जाती है ।
उपसंहार इसलिये, समाजके व्यक्तियोका यह खास कर्ता है कि वे उपासनाके तत्त्वको अच्छी तरहसे समझकर अपनी उपासनाके प्रत्येक अड और ढगकी जाँच करे, और रूढियोके मोहको जलाञ्जलि देकर उन्हे विल्कुल उपासना-तत्त्वके अनुकूल बना लेवे। ऐसा हो जानेपर समाजके फिर किसी भी समभदार व्यक्तिको उनकी इस उपासना पर आपत्ति करनेकी कोई वजह नहीं रह सकती।
समाज-हितैषियोको समाजमे इस उपासना-तत्त्वके फैलाने, शिक्षासस्थायोमें पढाए जाने और इसके अनुकूल समाजकी प्रवृत्ति करानेका खास तौरसे यत्ल करना चाहिए। इसीमे समाजका हित और इसीमे समाजका कल्याण है और इमी हितसाधनाकी दृष्टिसे यह निबन्ध लिखा गया है।
१ जैनियोमे स्थानकलागी और बारनायी जैसे नम्प्रदाय ऐल ही विरोध, परिणाम है।