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युगवीर-निबन्धावली मनुष्य नेत्रहीन (विवेकहित) हो और उसे मूर्तिरूपी दर्पणमे परमारमाका जो प्रतिबिम्ब पड रहा है वह दिखलाई ही न देता हो, अथवा उसका हृदय दर्पणके समान स्वच्छ न होकर मिट्टीके उस ढेलेके सदृश हो जो प्रतिबिम्ब (उपदेश) को ग्रहण ही नहीं करता और या इतना निर्बल हो कि उसे ग्रहण करके फिर शीघ्र छोड देता हो, और इस तरह अपने प्रात्माके सुधारकी अोर न लग सकता हो, परन्तु इसमे मतिका कोई दोष नही, न इन बातोसे मूतिकी उपयोगिता नष्ट होती है और न उसकी हितोपदेशकतामे ही कोई बाधा आती है। ऐसी परम हितोपदेशक मूर्तियां, नि सन्देह, अभिवन्दनीय ही होती है । इसीसे एक प्राचार्यमहोदय उनका निम्नप्रकारसे अभिवादन करते है।
कथयन्ति कषायमुक्तिलक्ष्मी परया शाततया भवान्तकानाम् । प्रणमामि विशुद्धये जिनाना प्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमनि ॥
-क्रियाकलाप अर्थात्-ससारसे मुक्त श्रीजिनेन्द्रदेवकी उन तदाकार सुन्दर प्रतिमानोको मैं, अपनी प्रात्मशुद्धि के लिये, प्रणाम करता हूँ, जो कि अपनी परम शान्तताके द्वारा ससारी जीवोको कषायोकी मुक्तिका उपदेश देती हैं। __इससे स्पष्ट है कि जिनेन्द्र-प्रतिमानोकी यह पूजा आत्मविशुद्धिके लिये की जाती है और जो काम आत्माकी शुद्धिके लिये-पात्माकी विभाव-परिणतिको दूर कर उसे स्वभावमे स्थित करनेके उद्देश्यसेकिया जाता हो वह कितना अधिक उपयोगी है इस बातको बतलानेकी जरूरत नही, विज्ञ पाठक उसे स्वय समझ सकते है और ऊपरके इस सम्पूर्ण कथनसे मूर्तिपूजाकी उपयोगिताको बहुत कुछ अनुभव कर सकते हैं।
विरोधका रहस्य हाँ, जब मूर्तिपूजा इतनी-अधिक उपयोगी चीज है तब कभी कभी