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युगवीर-निबन्धावली पूरी करनेके अभिप्रायसे, तोडी जा रही थी और जिसे उस सामन्तने अपने उन भावोके अनुसार तोडने नही दिया था बल्कि उसके लिये राणामे युद्ध किया था। वह पद्य इस प्रकार है -
ताडने दूक्या इसे नकली किला मैं मानके ? पूजते हैं भक्त क्या प्रभुमूतिको जड जानके ? अज्ञ जन उसको भले ही जड कहें अज्ञानमे । देखते भगवानको धीमान उसमे ध्यानसे ।।
-रङ्गमे भग इससे पाठक मूर्तिपूजाके भावोको और भी स्पष्टताके साथ अनुभव कर सकते हैं. और यह समझ सकते है कि इन मूर्तियोके द्वारा परमात्माका ही पूजना अभीष्ट होता है-धातुपाषारणका नही। मूर्तिका विनय-अविनय, वास्तवमे मूर्तिमानका ही विनय-विनय है। और यही वजह है कि जो कोई किमी महात्मा, परमात्मा, राजा या महाराजाकी लोकमे सम्प्रतिष्ठित मूर्तिका अविनय करता है वह दडका पात्र समझा जाता है और उसे, प्रमाणित होने पर दड दिया भी जाता है। ___ यह ठीक है कि, धातुपाषाणकी ये मूर्तियाँ हमे कुछ देती-दिलाती नही हैं और इनसे ऐसी आशा रखना इनके स्वरूपकी अनभिज्ञता प्रकट करना है, तो भी परमा माकी स्तुति आदिके द्वारा शुभ भावोको उत्पन्न करके हम जिस प्रकार अपना बहुत कुछ हित साधन कर लेते हैं उसी प्रकार इन मूर्तियोकी सहायतामे भी हमारा बहुत कुछ काम निकल जाता है । मूर्तियोंके देखनेसे हमे परमात्माका स्मरण होता है अन्न जल नही ग्रहण करू गा । परन्तु सेना सजाकर वहाँ तक पहचने आदिके लिये कितन ही दिनोकी जरूरत थी और उस वक्त तक भूखा नही रहा जा सकता था. इमलिये प्रतिज्ञा पूरी करनेके लिये मत्रियो द्वारा को नोडने की योजना कीगई थी।