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उपासना-तत्त्व
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और उससे फिर आत्मसुधारकी ओर हमारी प्रवृत्ति होने लगती है। यह सब कैसे होता है, इसे एक उदाहररणके द्वारा नीचे स्पष्ट किया जाता है
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कल्पना कीजिये, एक मनुष्य किसी स्थानपर अपनी छतरी भूल आया । वह जिस समय मार्गमे चला जा रहा था, उसे सामनेसे एक दूसरा आदमी आता हुआ नज़र पडा, जिसके हाथमे छतरी थी । छतरीको देखकर उस मनुष्यको झटसे अपनी छतरी याद आ गई और यह मालूम हो गया कि मै अपनी छतरी प्रमुक जगह भूल आया हूँ और इसलिये वह तुरन्त उसके लानेके लिये वहाँ चला गया और ले आया । अब यहाँपर यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि उस मनुष्यको किसने बताया कि तू अपनी छतरी प्रमुक जगह भूल आया है । वह दूसरा आदमी तो कुछ बोला नही, और भी किसी तीसरे व्यक्तिने उस मनुष्य के कानमे आकर कुछ कहा नही । तब क्या वह जड छतरी ही उस मनुष्यसे बोल उठी कि तू अपनी छतरी भूल आया है ? परन्तु ऐसा भी कुछ नही है, फिर भी यह जरूर कहना होगा कि उस मनुष्यको अपनी छतरीके भूलनेकी जो कुछ खबर पडी है और वहाँ से लानेमे उसकी जो कुछ प्रवृत्ति हुई है उन सबका निमित्त कारण वह छतरी है, उस छतरीसे ही उसे यह सब उपदेश मिला है और ऐसे उपदेशको 'नैमित्तिक उपदेश' कहते है । यही उपदेश हमें परमात्माकी मूर्तियोपरसे मिलता है । जैनियोकी ऐसी मूर्तियाँ ध्यानमुद्राको लिये हुए परमवीतराग और शान्त-स्वरूप होती हैं । उन्हे देखनेसे बडी शान्ति मिलती है, ग्रात्मस्वरूपकी स्मृति होती
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- यह खयाल उत्पन्न होता है कि हे श्रामन् । तेरा स्वरूप तो यह है तू इसे भुलाकर ससारके मायाजालमे और कषायोंके फन्दे क्यो फँसा हुआ है ? नतीजा जिसका यह होता है कि ( यदि बीच में कोई बाधा उपन्न नही होती तो) वह व्यक्ति यमनियमादिके द्वारा अपने श्रात्मसुधारके मार्गपर लग जाता है । यह दूसरी बात है कि कोई