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उपासना-तत्त्व
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उनका कोई भी काम जड पदार्थोंकी सहायताके बिना नही होता, वे अपने चारो ओर जड तथा कृत्रिम पदार्थोंसे घिरे रहते हैं और उनसे नाना प्रकार के काम निकाला करते हैं जड तथा कृत्रिम गालीको सुनकर उन्हे रोष हो आता है, और वे यह भी खूब जानते हैं कि इस जगत्का सम्पूर्ण कार्य व्यवहार प्राय जड तथा कृत्रिम मूर्तियोकी सहायतास ही चल रहा है, इतनेपर भी उनका मूर्तिको जड तथा कृत्रिम बतलाकर उससे घृरणा उत्पन्न करना कहाँ तक ठीक है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते है । वास्तवमे यह सब साम्प्रदायिक मोह, आपसकी खीचातानी तथा पक्षपातका नतीजा है और तात्त्विक दृष्टिसे इसे कुछ भी महत्त्व नही दिया जा सकता । अथवा यो कहना चाहिए कि ऐसे लोगोको मूर्तिका रहस्य मालूम नही है, उन्हें यह खबर ही नही कि ऐसा कोई भी मनुष्य ससारमे नही हो सकता जो मूर्तिका उपासक न हो अथवा परमात्माकी उपासनामे मूर्तिकी सहायता न लेता हो, और इसलिये उन्हें ऊपरके इस सम्पूर्ण कथनसे मूर्तिका रहस्य खूब समझ लेना चाहिये और यह जान लेना चाहिए कि इन स्थूल मूर्तियोकी पूजाका कोई दूसरा उद्देश्य नही है, इनके द्वारा परमात्माकी ही उपासना की जाती है । ये परमात्माके प्रतिरूप हैं, प्रतिबिम्ब हैं और इसीलिये इन्हे प्रतिमा भी कहते हैं । बुद्धिमान् लोग इनमे परमात्माका दर्शन अथवा इनके सहारेसे अपनी आत्माका अनुभवन किया करते है, जैसा कि इस निबधके शुरू मे प्रकट किया गया है । नीचे एक पद्यसे भी पाठकोको ऐसा ही मालूम होगा, जिसमे कवि मैथिलीशररणजीने उन भावोको चित्रित किया है जो इस विषयमे एक सामत के हृदयमे उस समय उदित हुए थे जब कि उसके देशके किलेकी मूर्ति बनाकर एक राणाके द्वारा, अपनी प्रतिज्ञा'
१ प्रतिज्ञा, जो सहसा क्रोध के प्रवेशमे बिना सोचे समझे की गई थी यह थी कि जब तक उस देशके किलेको नही तोड डालू गा तब तक