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उपासना-तत्त्व
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नार्मोके उच्चारण करनेसे अथवा इन नामोको किसी लिपिविशेषमें लिखकर सामने रखनेसे इन उभय प्रकारकी ( शब्द-अक्षर-रूपवाली) मूर्तियोंके द्वारा यदि परमात्माका बोध होता है तो परमा माकी तदाकार मूति उसकी जीव मुक्तावस्थाकी प्राकृति-के देखनेसे वह बोध और भी ज्यादा स्पष्ट होता है। यदि यह कहा जाय कि ऐसी मूर्तिके द्वारा परमात्माका कुछ बोध ही नहीं होता तो वह शब्दो और अक्षरोके द्वारा बिल्कुल नहीं होता, यह कहना चाहिए, क्योकि वे भी मूर्तियाँ हैं और अतदाकार मूर्तियाँ हैं । जब तदाकार मूर्तियोंसे ही, जो कि ज्यादा विशद होती है, अर्थावबोध नही होता तो फिर अतदाकार मूर्तियोसे वह कैसे हो सकता है ? अत उक्त कथन ठीक नही है । इसी तरह यह समझना चाहिए कि परमात्माका नाम लेनेसे, शब्दो-द्वारा परमात्माकी स्तुति करनेसे-परमात्मने नम , ईश्वराय नम , परब्रह्मणे नमो नम , ॐ नम , रामो अरहताण, अल्हम्दोलिल्ला' इत्यादि मन्त्रोके उच्चारण करनेसे-या ॐ आदि अक्षरोकी आकृति सामने रखकर ध्यान करनेसे यदि किसी पुण्यफलकी प्राप्ति होती है तो वह तदाकार मूर्तिपरसे परमात्माका चिन्तन करनेसे भी जरूर होती है और ज्यादा हो सकती है। ऐमी हालतमे जो लोग परमात्माकी शब्दो और अक्षरोमे स्थापना करके उन अतदाकार मूर्तियोके द्वारा उसकी उपासना करते है उन्हे परमात्माकी तदाकार मूतियाँ बनाकर उपासना करनेवालोपर आक्षेप करनेकी ज़रूरत नहीं है और न वैसा करनेका कोई हक ही है, क्योकि वे स्वय ही मूर्तियो द्वारा-बल्कि अस्पष्ट मूर्तियो द्वारा परमात्माकी उपासना करते हैं और उससे शुभ फलका होना मानते है । वास्तवमे यदि देखा जाय तो कोई भी चिन्तन अथवा ध्यान विना मूर्तिका सहारा लिये नही बन सकता और न निराकारका ध्यान ही हुआ करता है।
१ यह अरबी भाषाका मुसलमानी मत्र है।