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उपासना-तत्त्व
समवसरणादि-विभूतिसहित साक्षात् चित्र भी अपने हृदयमें खीचने लगता है । इस प्रकारके ध्यानका नाम 'रूपस्थ ध्यान' है और यह ध्यान प्राय मुनि-अवस्था ही मे बनता है।
आत्मीय बलके इतना उन्नत हो जानेकी अवस्थामे फिर उसको धातुपाषाणकी मूर्तिके पूजनादिकी या दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि परमात्माके ध्यानादिके लिए मूतिका अवलम्बन लेनेकी ज़रूरत बाकी नहीं रहती, बल्कि वह रूपस्थध्यानके अभ्यासमे परिपक्व होकर और अधिक उन्नति करता है और साक्षात् सिद्धोका चित्र भी खीचने लगता है, जिसको 'रूपातीत ध्यान' कहते हैं। इस प्रकार ध्यानके बलसे वह अपने प्रात्मासे कर्ममलको छाँटता रहता है और फिर उन्नतिके सोपानपर चढता हुआ शुक्लध्यान लगाकर समस्त कर्मोको क्षय कर देता है और इस तरह अपने प्रात्मत्वको प्राप्त कर लेता है।
अभिप्राय इसका यह है कि, मूर्तिपूजा प्रात्मदर्शनका प्रथम सोपान है और उसकी आवश्यकता प्राय प्रथमावस्था (गृहस्थावस्था) ही मे होती है । बल्कि, दूसरे शब्दोमे, यो कहना चाहिये कि जितना जितना कोई नीचे दर्जमे है, उतना उतना ही ज्यादा उसको मूर्तिपूजाकी या मूर्तिका अवलम्बन लेनेकी जरूरत है। यही कारण है कि हमारे प्राचार्योंने गृहस्थोंके लिये इसकी खास जरूरत रक्खी है और नित्य पूजन करना गृहस्थका मुख्य धर्म वर्णन किया है ।। ___ यह तो हुई मूर्तिविशेष और जैनियोके मूर्तिपूजा विषयक खास सिद्धान्तकी बात । अब यदि आमतौरसे मूर्तिपूजाके सिद्धान्त पर नजर डाली जाय मूर्तिके स्वरूप पर सूक्ष्मताके साथ विचार किया जाय
१ दारण पूजा मुक्ख सावयधम्मो रण सावगो तेरण विरणा। झारणज्भयरण मुक्ख जइधम्मो त विणा सोवि ॥ - रयणसार देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्याय सयमस्तप ।। दान चेति गृहस्थाना षट्कर्माणि दिने दिने ।। --पद्मनन्दिपचवि०