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उपासना-तत्त्व पर ऐसा नहीं है। मूर्तिके सहारेसे परमात्माकी ही पूजा, भक्ति, उपा. सना और पाराधना की जाती है। मूर्ति के द्वारा मूर्तिमानकी उपा. सनाका नाम ही मूर्तिपूजा है । इसीलिये इस मूर्तिपूजाके देवपूजा, देवाराधना, जिनपूजन, देवार्चन, भगवत्पर्युपासन, जिनार्चा इत्यादि नाम कहे जाते हैं और इसीलिये इस पूजनको साक्षात् जिनदेवके पूजनतुल्य वर्णन किया है । यथा
भक्त्याऽहत्प्रतिमा पूज्या कृत्रिमाऽकृत्रिमा सदा । यतस्तद्गुणसंकल्पात्प्रत्यक्ष पूजितो जिन ॥६-४२ ।।
-धर्मसंग्रहश्रावकाचार उर्दू के एक कवि शेख साहबने भी इस सबंधमें अच्छा कहा है -
उसमे है एक खुदाई का जलवा वगर ना शेख ।
सिजदा करेसे फायदा पत्थरके सामने १ अर्थात्-परमात्माकी उस मूतिमें खुदाईका जलवा-परमात्माका प्रकाश और ईश्वरका भाव-मौजूद है जिसकी वजह से उसे सिजदा-प्रणामादिक-किया जाता है, अन्यथा, पत्थरके सामने सिजदा करनेसे कोई लाभ नहीं था । भावार्थ, परमात्माकी मूतिको जो प्रणामादिक किया जाता है वह वास्तवमे परमात्माको-परमात्माके गुणोको ही प्रणामादिक करना है, धातु-पाषाणको प्रणामादिक करना नहीं है। और इसलिए उसमें लाभ जरूर है। जैन-दृष्टि से खुदाईका वह जलवा परमात्माके परम वीतरागता और शान्ततादि गुणोका भाव है जो जैनियोकी मूर्तियोमे साफ तौरसे झलकता और सर्वत्र पाया जाता है। परमात्माके उन गुरगोको लक्ष्य करके ही जैनियोंके यहाँ मूर्तिकी उपासना की जाती है ।
परमात्माकी इस परम शान्त और वीतराग मूतिके पूजनेमे एक बडी भारी खूबी और महत्त्वकी बात यह है कि, जो संसारी जीव संसारके मायाजाल और गृहस्थीके प्रपचमे अधिक से हुए हैं जिनके चित्त अति चचल हैं और जिनका आत्मा इतना बलाढ्य नहीं है कि