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युगवीर-निबन्धावली जो केवल शास्त्रोमें परमात्माका वर्णन सुनकर एकदम बिना किसी नक्शेके परमात्मस्वरूपका नक्शा (चित्र) अपने हृदय पर खीच सके या परमात्म-स्वरूपका ध्यान कर सकें, वे भी उस मूतिके द्वारा परमात्मस्वरूपका कुछ ध्यान और चिन्तवन करनेमे समर्थ हो जाते हैं और उसीसे आगामी दुखो तथा पापोकी निवृत्तिपूर्वक अपने आत्मस्वरूपकी प्राप्तिमें अग्रसर होते हैं ।
जब कोई चित्रकार चित्र खीचनेका अभ्यास करता है तब वह सबसे प्रथम सुगम और सादे चित्रोपरसे, उनको देख देखकर, अपना चित्र खीचनेका अभ्यास बढाता है, एकदम किसी कठिन, गहन और गम्भीर चित्रको वह नहीं बना सकता । जब उसका अभ्यास बढ़ जाता है, तब कठिन,गहन और रंगीन चित्रोको भी सुन्दरताके साथ बनाने लगता है । और छोटे चित्रको बडा और बडेको छोटा भी करने लगता है। आगे जब अभ्यास करते करते वह चित्रविद्यामे पूरी तौरसे निपुण और निष्णात हो जाता है, तब वह चलती-फिरती, दौडती-भागती वस्तुप्रोका भी चित्र बडी सफाईके साथ बातकी बातमे खीचकर रख देता है और चित्र-नायकको न देखकर, केवल व्यवस्था और हाल ही मालूम करके, उसका साक्षात् जीता-जागता चित्र भी अकित कर देता है । उसी प्रकार यह ससारी जीव भी एकदम परमात्मस्वरूपका ध्यान नही कर सकता-अर्थात् परमात्माका फोटो अपने हृदय पर नही खीच सकता, वह परमात्माकी परम वीतराग और शान्त मूर्तिपरसे ही अपने अभ्यासको वढाता है। मूतिके निरन्तर दर्शनादि अभ्याससे जब उस मूर्तिकी वीतराग छबि और ध्यानमुद्रासे वह परिचित हो जाता है, तब शनै शनै एकान्तमे बैठकर उस मूर्तिका फोटो अपने हृदयमे खीचने लगता है और फिर कुछ देर तक उसको स्थिर रखनेके लिये भी समर्थ होने लगता है। ऐसा करने पर उसका मनोबल और प्रात्मबल बढ़ जाता है और फिर वह इस योग्य हो जाता है कि उस मूर्तिके मूर्तिमान श्रीमहन्तदेवका