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युखबीर-निबन्धावली पूजा और उपासना है। इसलिये परमात्मा' इन्ही समस्त कारणोसे हमारा परम पूज्य और उपास्य देव है। उसकी इस उपासनाका मुख्य उद्देश्य, वास्तवमें, परमात्म गुणोंकी प्राप्ति अथवा अपने भास्मीय गुणोंको प्राप्तिको भावना है। यह भावना जितनी अधिक दृढ और विशुद्ध होगी सिद्धि भी उतनी ही अधिक निकट होती जायगी। इसीसे अच्छे अच्छे योगीजन भी निरतर परमात्माके गुणोका चिंतन किया करते हैं। कभी कभी वे परमात्माका स्तवन करते हुए उसमें उन खास खास गुणोका उल्लेख करते हुए देखे जाते हैं जिनको प्राप्त करनेकी उनकी उत्कट इच्छा होती है और उनके सम्बन्धमे यह साफ तौरसे लिख भी दिया करते हैं कि हम ऐसे परमात्मगुणोकी प्राप्तिके लिये परमात्माकी वन्दना करते हैं, जैसा कि सर्वार्थसिद्धिमे श्रीपूज्यपादाचार्यके दिये हुए निम्न वाक्यसे प्रकट है -
मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तार कर्मभूभता।
ज्ञातार विश्वतत्त्वानां वदे तद्गुणलब्धये ।। इससे यह और भी स्पष्ट हो जाता है कि परमात्माकी उपासना मुख्यतया उनके गुणोकी प्राप्तिके उद्देश्यसे की जाती है, उसमे परमात्माकी कोई गरज नही होती बल्कि वह अपनी ही गरज को लिये हुए होती है और वह गरज़ 'प्रात्मलाभ' है जिसे परमात्माका आदर्श सामने रखकर प्राप्त किया जाता है । और इसलिये, जो लोग उपासनाके इस मुख्योद्देश्यको अपने लक्ष्यमे नही रखते और न उपकारके स्मरण पर ही जिनकी दृष्टि रहती है उनकी उपासना वास्तवमें उपासना कहलाए जानेके योग्य नही हो सकती। ऐसी
१ इन्ही कारणोसे अन्य वीतरागी माधु और महात्मा भी, जिनमे प्रात्माकी कुछ शक्तियां विकसित हुई हैं और जिन्होने अपने उपदेश, माचरण तथा शास्त्रनिर्माणसे हमारा उपकार किया है वे सब, हमारे