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उपासना-तत्त्व
चिन्तबन ही हमको अपनी आत्माकी याद दिलाता है-अपनी भूली हुई निधिकी स्मृति कराता है-उसीसे प्रान्माको यह मालूम पड़ता है कि मैं कौन हूँ (को वाऽह) और मेरी प्रात्मशक्ति क्या है (का च मे शक्ति)। परमात्मस्वरूपकी भावना ही प्रात्मस्वरूपकी उपलब्धि तथा स्थितिका कारण है' । परमात्माका भजन और स्तवन ही हमारे लिये अपने आत्माका अनुभवन है। आत्मोन्नतिमें अग्रसर होनेके लिये परमात्मा ही हमारा आदर्श है । प्रात्मीय गुणोकी प्राप्तिके लिये हम उसी आदशको अपने सन्मुख रखकर अपने चरित्रका गठन करते हैं । अपने आदर्श पुरुषके गुणोंमें भक्ति तथा अनुरागका होना स्वाभाविक और जरूरी है । बिना अनुरागके किसी भी गुणकी प्राप्ति नहीं हो सकती। उदाहरणके लिये, यदि कोई मनुष्य सस्कृत भाषाका विद्वान होना चाहे तो उसके लिये यह जरूरी है कि वह संस्कृत भाषाके विद्वानोका मसर्ग करे, उनसे प्रेम रक्खे और उनकी सेवामें रहकर कुछ सीखे, सस्कृतकी पुस्तकोका प्रेमपूर्वक संग्रह करे और उनके अध्ययनमे चित्त लगाए । यह नहीं हो सकता कि, सस्कृतके विद्वानोमे तो घृणा करे, उनकी शकल तक भी देखना न चाहे, उनसे कोसो दूर भागे, सस्कृतकी पुस्तकोको छुए अथवा देखे तक नही, न सस्कृतका कोई शब्द अपने कानोमे पडने दे, और फिर सस्कृतका विद्वान बन जाय । इसलिये प्रत्येक गुणाकी प्राप्तिके लिये उसमे सब पोरसे अनुरागकी बडी जरूरत है । जो मनुष्य जिस गुणका आदर सत्कार करता है अथवा जिस गुणसे प्रेम रखता है वह उस गुणके गुरणीका भी अवश्य आदर-सत्कार करता है । क्योकि गुणीके आश्रय बिना कही भी गुरण नहीं होता । आदर-सत्काररूप इस प्रवृत्तिका नाम ही
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१ सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन् भावनया पुन' । तत्रैव दृढसस्काराल्लभते ह्यात्मन स्थितिम् ।
-समाधितन्त्र