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उपासना-तत्त्व
सम्बन्ध बाकी रहता है तब तक परमात्माको सफापरमात्मा, जीषन्मुक तथा महेत कहते हैं और जब देहका सम्बंध भी छूट जाता है और मुक्तिको प्राप्ति हो जाती है तब वहीं सकलपरमात्मा निष्कलपरमात्मा, विदेहमुक्त और सिद्ध नामोंसे विभूषित होता है । इस प्रकार अवस्थाभेदसे परमात्माके दो भेद कहे जाते हैं । यह परमात्मा अपनी जीवन्मुक्तावस्थामें अपनी दिव्य-वापीके द्वारा,संसारी जीवोको उनके प्रात्माका स्वरूप और उसकी प्राप्तिका उपाय बतलाता है-अर्थात्, उनकी आत्मनिधि क्या है, कहाँ है, किस किस प्रकारके कर्मपटलोसे आच्छादित है, कैसे कैसे उपायोंसे वे कर्मपटल इस आत्मासे जुदे हो सकते हैं,ससारके अन्य समस्त पदार्थोसे इस प्रात्माका क्या सबध है, दुःखका, सुखका और संसारका स्वरूप क्या है, कैसे दुखकी निवृत्ति और सुखकी प्राप्ति हो सकती है, इत्यादि समस्त बातोका विस्तारके साथ सम्पक प्रकार निरूपण करता हैजिससे अनादि अविद्याग्रसित ससारी जीवोको अपने कल्याणका मार्ग सूझता है और अपना हित-साधन करनेमे उनकी प्रवृत्ति होती है । इस प्रकार परमात्माके द्वारा जगत्का नि सीम (बेहद) उपकार होता है। इसी कारण परमात्माके सार्व, परमहितोपदेशक, परमहितैषी और निनिमित्तबन्धु इत्यादि भी नाम कहे जाते हैं । इस महोपकारके बदलेमे हम (ससारी जीव) परमात्माके प्रति जितना प्रादर-सत्कार प्रदर्शित करे और जो कुछ भी कृतज्ञता बतलाएँ वह सब तुच्छ है। जो सज्जन अथवा साधुजन होते हैं वे अपने उपकारीके उपकारको कभी नहीं भूलते, बराबर उसका स्मरण रखते हैं और इस उपकार
चामीकरत्वमचिरादिव धातुभेदा ।-कल्याणमदिर। मिन्नात्मानमुपास्यात्मा परो भवति तादृश । वतिर्दीपं यथोपास्य भिन्ना भवति तादृशी।।-समाधितत्र । १ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धि प्रसादात्परमेष्ठिन. आप्तपरीक्षा ।