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उपासना-तत्त्व
१७६ जरूरतको ध्यानमें रखकर आज इस निबष द्वारा, सक्षेपमें, उपासनातत्त्वको समझानेका यत्न किया जाता है। इससे हमारे वे अजेन बन्धु भी ज़रूर कुछ लाभ उठा सकेंगे जिन्हे जैनियोंके उपासना-तत्त्वको जाननेकी आकाक्षा रहती है, अथवा जैनसिद्धान्तोकी अनभिज्ञताके कारण जिनके हृदयमे कभी कभी यह प्रश्न उपस्थित हुया करता है कि, जब जैन लोग किसी ईश्वर या परमात्माको जगत्का कर्ता-हर्ता नहीं मानते और न उसकी प्रसन्नता या अप्रसन्नतासे किसी लाभ तथा हानिका होना स्वीकार करते हैं तो फिर वे परमात्माकी पूजा, भक्ति और उपासना क्यों करते हैं और उन्होने उससे क्या लाभ समझ रक्खा है ? इस प्रश्नका समाधान भी स्वत नीचेकी पंकियोसे हो जायगा -
सिद्धान्त और उद्देश्य जैनधर्मका यह सिद्धान्त है कि यह प्रात्मा जो अनादि कर्ममलसे मलिन हो रहा है-अपने स्वरूपको भुलाकर विभावपरिणतिरूप परिणम रहा है-वही उन्नति करते करते कर्ममलको दूर करके परमात्मा बन जाता है। आत्मासे भिन्न कोई एक ईश्वर या परमात्मा नही है- आत्माकी परमविशुद्ध अवस्थाका नाम ही परमात्मा है। अहंत, जिनेन्द्र, जिनदेव, तीर्थंकर, सिद्ध, सार्व, सर्वज्ञ, वीतराग, परमेष्ठी, परज्योति, शुद्ध, बुद्ध, निरजन, निर्विकार, आप्त, ईश्वर, परब्रह्म इत्यादि सब उसी परमात्मा या परमात्मपदके नामान्तर हैं अथवा दूसरे शब्दोमे यो कहिये कि, परमात्मा आत्मीय अनत गुरणोका समुदाय है, अनत गुरणोकी अपेक्षा उसके अनत नाम हैं, वह परमात्मा परम वीतरागी और शान्तस्वरूप है, उसका किसीसे राग या द्वेष नही है, किसीकी स्तुति, भक्ति और पूजासे वह प्रसन्न नहीं होता और न किसीकी निन्दा, अवज्ञा या कटु शब्दोपर अप्रसन्नता लाता है, धनिक श्रीमानो, विद्वानों और उच्च श्रेणी या वर्णके मनु