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उपासना-तत्व
१७७ समझते हैं। उनका सम्पूर्ण प्राचरण इस विषयमें, प्रायः लोक-रीतिका (रूढियोंका) अनुसरण करनेवाला, एक दूसरेकी देखादेखी और ज्यादातर लोकिक प्रयोजनोको लिये हुए होता है। उपास्य और उपासनाके स्वरूपपर उनकी दृष्टि ही नहीं होती और न वे उपासनाके विधि-विधानोमे कभी कोई भेद उपस्थित होने पर सहजमें उसका आपसी (पारस्परिक) समझोता कर सकते हैं। उन्हें अपनी चिरप्रवृत्तिके विरुद्ध जरासा भी भेद असह्य हो उठता है और उसके कारण वे अपने भाइयोसे ही लडने-मरने तकको तैयार हो जाते हैं। ऐसे स्त्री-पुरुषोके द्वारा समाजमें सूखा क्रियाकाड बढ जाता है, यान्त्रिक चारित्रकी-जड मशीनो जैसे आचरणकी-वृद्धि हो जाती है और भावशून्य क्रियाएँ फैल जाती हैं। ऐसी हालतमे उपासना उपासना नहीं रहती और न भक्तिको भक्ति ही कह सकते हैं । ऐसी प्राणरहित उपासनासे यथेष्ट फलकी कुछ भी प्राप्ति नही हो सकती । श्रीकुमुदचन्द्राचार्यने अपने 'कल्याणमन्दिर' स्तोत्रमें ठीक लिखा है -
आकर्णितोऽपि महितोऽपि निरीक्षितोऽपि, नूनं न चेतसि मया विधृतोऽसि भक्त्या। जातोऽस्मि तेन जनबान्धव दुखपात्रं,
यस्मात् क्रिया प्रतिफलन्ति न भावशून्या ॥ अर्थात्-हे लोकबन्धु जिनेन्द्रदेव जन्मजन्मान्तरोमे मैंने आपका चरित्र सुना है, पूजन किया है और दर्शन भी किया है, यह सब कुछ किया परन्तु भक्तिपूर्वक कभी आपको अपने हृदयमे धारण नही किया' । नतीजा जिसका यह हुआ कि मैं अब तक इस ससारमे
१ जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिपूर्वक हृदयमे धारण करनेसे जीवोके दृढ कर्मबंधन इस प्रकार ढीले पड़ जाते हैं जिस प्रकार कि चन्दनके वृक्ष पर मोरके प्रानेसे उम वृक्षको लिपटे हुए सांप। अर्थात् मोरके सामीप्यसे जैसे सर्प घबराते हैं वैसे ही जिनेन्द्र के हृदयस्थ होने पर कर्म कांपते हैं,