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युगवीर - निबन्धावली
कि "नही, खबरदार । ऐसा नही किया करते, ये भगवान है, इनके आगे हाथ जोडो । " साथ ही, उसे प्रतिदिन भगवानके दर्शनादिकके लिये मंदिर में जाने और किसी स्तुति पाठादिकका उच्चारण करनेकी प्रेरणा भी की जाती है । इस तरह शुरूसे ही परमात्माकी पूजा, भक्ति, उपासना और प्राराधनाके सस्कार हमारे अन्दर डाले जाते है । परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी, समाजमे, ऐसे बहुत ही कम व्यक्ति निकलेंगे जो उपासनाके तत्त्वको अच्छी तरहसे जानते और समझते हो । उन्हे यह बात प्राय सिखलाई ही नही जाती । अधिकाश माता-पिता स्वय इस तत्त्वसे अनभिज्ञ हैं - वे खुद ही अपनी क्रियाका रहस्य नही जानते अथवा कुछका कुछ जानते है - और इसलिये उनकी समझमे जो बात जिस तरह पर कुलपरम्परासे चली आई होती है उसे वे अपने बच्चोके गले उतार देते है - उन्हे रटा देते अथवा सिखला देते हैं। इससे अधिक शायद वे अपना और कुछ कर्तव्य नही समझते । नतीजा इसका यह होता है कि हमारे अधिकाश भाई नित्य मंदिरमे जरूर जाते हैं, भगवानका दर्शन और पूजन करते हैं, स्तुतियाँ पढते हैं, संस्कृत - प्राकृतके भी अनेक स्तोत्रोका पाठ किया करते हैं, तीर्थयात्राको निकलते हैं, और भक्ति तथा उपासनाके नामपर और भी बहुतसे काम तथा विधि-विधान करते हुए देखे जाते हैं, परन्तु उन्हे प्राय यह खबर नही होती कि यह सब कुछ क्यो किया जाता है, किसके लिये किया जाता है, क्या जरूरत है, इसका मूल उद्देश्य क्या है, हमारी इन क्रियाओं से वह उद्देश्य पूरा होता है या नही और यदि नही होता तो हमे फिर किस प्रकार से वर्तना चाहिये, इत्यादि । हाँ, वे इतना जरूर जानते हैं कि ये सब धर्मके काम हैं, पहलेसे होते आए हैं और इनके द्वारा पुण्योपार्जन किया जाता है । परन्तु धर्मके काम क्योकर हैं, किस तरह होते आए हैं और इनके द्वारा कैसे पुण्यका उपार्जन किया जाता है, इन सब बातोंकी उन्हें जांच नही होती और न वे इस जाँचकी कुछ जरूरत ही