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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण १७३ से उनका शासन सार्वदेशिक और सार्वकालिक नही हो सकता। अर्थात्-पर्व देशों और सर्व-समयोंके मनुष्योंके लिये वे समान रूपसे उपयोगी नही हो सकते । और इसलिए केवल उनके आधार पर चलना कभी युक्ति-सङ्गत नही कहला सकता । विवाह-विषयमे प्रागमका मूलबिधान सिर्फ इतना ही पाया जाता है कि वह गृहस्थधर्मका वर्णन करते हुए गृहस्थके लिये आमतौर पर गृहिणीकी अर्थात् एक स्त्रीकी जरूरत प्रकट करता है। वह स्त्री कैसी, किस वर्णकी, किस जातिकी, किन किन सम्बन्धोसे युक्त तथा रहित और किस गोत्रकी होनी चाहिए अथवा किस तरह पर और किस प्रकारके विधानोंके साथ विवाह कर लानी चाहिये इन सब बातोमे आगम प्राय कुछ भी हस्तक्षेप नहीं करता। ये सब विधान लोकाश्रित हैं आगमसे इनका प्राय कोई सम्बन्ध-विशेष नही है । यह दूसरी बात है कि आगममे किसी घटना-विशेषका उल्लेख करते हुए उनका उल्लेख प्रा जाय और तात्कालिक दृष्टिसे उन्हे अच्छा या बुरा भी बतला दिया जाय, परन्तु इससे वे कोई सार्वदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त नहीं बन जाते अर्थात् ऐसे कोई नियम नही हो जाते कि जिनके अनुसार चलना सर्व देशो और सर्व-समयोंके मनुष्योंके लिये बराबर जरूरी और हितकारी हो । हाँ, इतना जरूर है कि आगमकी दृष्टिमे सिर्फ वे ही लौकिक विधियों अच्छी और प्रामाणिक समझी जा सकती हैं जो जैन सिद्धान्तोके विरुद्ध न हो, अथवा जिनके कारण जैनियोकी श्रद्धा ( सम्यक्त्व ) मे बाधा न पडती हो
और न उनके व्रतोमे ही कोई दूषण लगता हो । इस दृष्टिको सुरक्षित रखते हुए जैनी लोग प्राय सभी लौकिक विधियोको खुशीसे स्वीकार कर सकते हैं और अपने वर्तमान रीति-रिवाजोमे देशकाला-नुसार यथेष्ट परिवर्तन कर सकते हैं। उनके लिये इसमें कोई
१. सर्व एव हि नाना प्रमाणं लौकिको विधिः ।
यत्र सम्यक्त्वहानिन यत्र न व्रतदूषणम् ॥-सोमदेव
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