________________
१७२
युगवीर-निबन्धावली कथनसे अथवा इतने ही सकेतसे लोकाश्रित ( लौकिक ) धर्मोका बहुत कुछ रहस्य समझमे आ जाता है । साथ ही यह मालूम हो जाता है कि वे कितने परिवर्तनशील हुआ करते हैं। ऐसी हालतमे विवाह-जैसे लौकिक धर्मों और सासारिक व्यवहारोके लिये किसी
आगमका प्राश्रय लेना, अर्थात् यह हूँढ-खोज लगाना कि आगममे किस प्रकारसे विवाह करना लिखा है, बिल्कुल व्यर्थ है। कहा भी है"संसारव्यवहारे तु स्वत सिद्धे वृथागम ।' अर्थात्,ससार-व्यवहारके स्वत सिद्ध होनेसे उसके लिये प्रागमकी जरूरत नहीं । वस्तुतः आगम ग्रन्थोमे इस प्रकारके लौकिक धर्मों और लोकाश्रित विधानोका कोई क्रम निर्धारित नहीं होता। वे सब लोक प्रवृत्ति पर अवलम्बित रहते है । हाँ, कुछ त्रिवर्णाचार-जैसे अनार्ष ग्रन्थोमे विवाहविधानोका वर्णन जरूर पाया जाता है । परन्तु वे आगमग्रन्थ नहीं है । उन्हे प्राप्त भगवानके वचन नहीं कह सकते और न वे आप्तवचनानुसार लिखे गये है,इतने पर भी कुछ ग्रन्थ तो उनमेसे बिल्कुल ही जाली और बनावटी है, जैसा कि 'जिनसेनत्रिवर्णाचार' और 'भद्रवाहिता' के परीक्षालेखोसे प्रगट है २ । वास्तवमे ये सब ग्रन्थ एक प्रकारके लौकिक ग्रन्थ है । इनमे प्रकृत विषयके वर्णनको तात्कालिक और तद्देशीय रीति रिवाजोका उल्लेखमात्र समझना चाहिये अथवा यो कहना चाहिये कि ग्रन्थकर्तामोको समाजमे उस प्रकारके रीतिरिवाजोको प्रचलित करना इष्ट था । इससे अधिक उन्हे और कुछ भी महत्त्व नही दिया जा सकता । वे आजकल प्राय. इतने ही कामके है । एकदेशीय, लौकिक और सामयिक ग्रन्थ होने
१ यह श्रीसोमदेव प्राचार्य का वचन है ।
२. ये सब लेख 'ग्रन्थपरीक्षा' नामसे पहले 'जनहितैषी' पत्रमे प्रकाशित हुए थे और अब कुछ समयसे अलग पुस्तकाकारमे भी छप गये हैं।