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युगवीर - निबन्धावली
करनेकी चर्चा होने लगी और कुछ कालके अनन्तर तो यह जीवहिंसा एक प्रकारसे बन्द ही हो गई थी। इस श्रेयका अधिकारी जैनधर्म था । उसके दयामय विचारोका इतना प्रभाव पडा था कि उससे वैदिक धर्मको अपना स्वरूप बदलना पडा था और उसे अपनेमे जीवदयाको बलात् स्थान देना पडा था । अतएव 'जिन' शब्दका जो जयशील वा विजयवान् अर्थ होता है तदनुसार जैनधर्मने लोगोपर प्राचीन कालसे विजय प्राप्त किया है और वह आगे भी करेगा, इसमे सन्देह नही है ।"
जैनधर्म ही हिसा हिसा और दया
इन सब कथनोंसे यह नतीजा निकलता है कि और दयाधमका आद्यप्रवर्तक और मुलनायक है। का असली प्राकृतिक स्वरूप सिवाय जैनधर्मके और किसी भी धर्ममे प्राय नही पाया जाता है । वास्तवमे हमारे पूर्वज बडे ही दयालु थे । उनका हृदय बडा ही विस्तीर्ण और उदार था । दूसरोका हित करना ही वे अपना मुख्य कर्तव्य समझते थे । उनकी दयालुता, उनकी उदारता केवल अपने घर, ग्रपने कुटुम्ब और अपनी जाति तक ही सकुचित न थी, बल्कि सारे विश्वके नर-नारियो, जैनो-अजैनो और पशु-पक्षियों तक निस्वार्थ भावसे फैली हुई थी। वे महानुभाव यदि किसी प्राणीको मिथ्यात्वदशा व पान अथवा दुखावस्थामे देखते थे तो तुरन्त उनका हृदय दयासे भीग जाता था और जिस-तिस प्रकार व उसका मिथ्यात्व, पाप अथवा दुख दूर कानेका यत्न करते थे । इससे उनको सुख-शान्तिका प्राप्ति होता थी। हजारो मिथ्यात्वियोका मिथ्यात्व और लाखो पापियोका पाप छुड़ाकर उनको सच्चे धर्मकी शरणमे लाना तथा सच्चा मार्ग बताना उन्हीका काम था । उन्ही धर्मवीरो और सत्पुरुषोका यह प्रभाव है, जो भिन्न धर्मावलम्बी ( अन्यमती ) विद्वान् भी आज जैनियो के दयामय धर्मकी छाप अपने ऊपर स्वीकार करते है ।
परन्तु जब हम जैनियोकी वर्तमान दशाको देखते हैं तो हमको