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युगवीर-निबन्धावली और वृद्धिंगत होना । समाज व्यक्तियोंसे बनता है-व्यक्तियोके समुदायका नाम ही समाज है-और व्यक्तियोका समुदाय तभी बढता है जब कि विवाहसे सतान उत्पन्न हो। इसलिए सतानोत्पा
(३) दाय-भागके ग्रन्थो अथवा प्रकरणोमे भी असवर्ण विवाहके विधानोका उल्लेख पाया जाता है-उनमे ऐसे विवाहोसे उत्पन्न हुई संतति के लिये विरासतके नियम दिये हैं-और उनके लिये 'महंन्नीति' आदि ग्रयोको देखना चाहिये, जिनके प्रमाणोको विस्तार-भयसे छोडा जाता है। अथवा जैन-ला-कमेटी देहली द्वारा प्रकाशित 'जैन-नीतिसग्रह' को देखना चाहिये जिसमे ऐसे कितने ही प्रकरणोका सग्रह किया गया है।
जब असवर्ण विवाहो तकका विधान है तब जातियो उपजातियोकी तो कोई गिनती ही नहीं हो सकती--उनकी कल्पना तो बहुत पीछे
(४) म्लेच्छो और भीलोकी कन्याओके साथ विवाह होनेके भी बहुतसे उदाहरण शास्त्रोमे मिलते हैं और उनके करनेवाले अच्छे-अच्छे प्रतिष्ठित पुरुष हुए हैं, जैसे तीर्थंकर, चक्रवर्ति, वसुदेव आदि । परतु अाज ऐसे सम्बन्ध गहित समझे जाते हैं।
(५) श्रीनेमिनाथके चचा वसुदेवजीने अपने चचाजाद भाई देवसेनकी लडकी 'देवकी' से भी विवाह किया था । और इमसे यह प्रकट है कि उस समय गोत्र तो गोत्र एक कुटुम्बमे भी विवाह हो जाता था,जो आजकल हेय समझा जाता है। और कुछ जातियोमे तो आठ-आठ गोत्र टालकर विवाह किया जाता है। वसुदेवजीने 'एणीपुत्र' नामकके 'व्यभिचारजात' की पुत्री 'प्रिय गुसुन्दरी' से भी, जिसे आजकलकी भाषामे 'दस्से या गाटेकी लडकी' कहना चाहिये, विवाह किया था। ( देखो 'हरिव शपुराण' ।)
(६) मामा फूफीकी कन्याप्रोसे विवाहका पहले आम दस्तूर था