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युगवीर-निबन्धावली सभी जन गान किया करते थे। वह वाक्य इस प्रकार हैं.
अंगद्विख्यातसौभाग्यो वसुदेव पिता तव । गायते यस्य सत्कीर्ति खेचरीभूचरीजने ॥
-- १४-१४३ इन दोनो ग्रन्थोके अवतरणोसे ही इस बातका भले प्रकार पता चल जाता है कि वसुदेवजी कितने यशस्वी, विवेकी, प्रखर विद्वान् और धार्मिक पुरुष थे। ऐसी हालतमे उनके ये तीनों विवाह उस समय की दृष्टि से जरा भी हीन अथवा जघन्य नही समझे जा सकते। उन्हें अनुचित समझना ही अनुचित होगा । अस्तु, अब रोहिणीके स्वयवरकी और चलिये। रोहियोका स्पयंवर
रोहिणी अरिष्टपुरके राजाकी लडकी और एक सुप्रतिष्ठित घरानेकी कन्या थी । इसके विवाहका स्वयवर रचाया गया था,जिसमे जरासन्धादिक बडे बडे प्रतापी राजा दूर देशातरोसे एकत्र हुए थे। स्वयबरमडपमें वसुदेवजी, किसी कारण-विशेषसे अपना वेष बदल कर, परणव' नामका वादिन हाथमे लिए हुए एके ऐसे रत तथा अकुलीन वाजन्त्री ( बाजा बजानेवाला ) के रूप में उपस्थित थे कि जिससे किसीको उस वक्त वहाँ उनके वास्तविक कुल जाति प्रादिका कुछ भी पता मालूम नही था । रोहिणीने सम्पूर्ण उपस्थित राजानी तथा राजकुमारोंको प्रत्यक्ष देखकर और उनके बैश तथा गुणादिका परिचय पाकर भी जब उनमेसे किसीको भी अपने योग्य वर पसद नहीं किया तब उसने, सब लोगोंको आश्चर्यमें डालते हए, बडे ही नि संकोच भावसे उक्त बाजन्त्री रूपके धारक एक अपरिचित और प्रजातकुल-जाति-नामा व्यक्ति (वसुदेव)के गले में ही अपनी वरमाला डाल दी। रौहिणीके इस कृत्य पर कुछ ईल, मानी और मदान्ध राजा, अपना अपमान समझकर, कुपित हुए और रोहिणीके ,