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बसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण
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का भय लगा हुआ है, इससे भी अधिक, जो एक ही धर्म और एक ही प्रचारके मानने तथा पालनेवाली अग्रवाल, खडेलवाल श्रादि समान जातियोमे भी परस्पर रोटी-बेटी व्यवहार एक करनेको अनुचित समझते है, पातक अथवा पतनकी शकासे जिनका हृदय सतप्त है और जो अपनी एक जातिमे भी आठ-आठ गोत्रो तकको टालने के चक्कर मे पडे हुए है । ऐसे लोगोको वसुदेवजीका उक्त उदाहरण और उसके साथ विवाहसम्बधी वर्तमान रीति-रिवाजोका मिलान बतलायगा कि रीति-रिवाज कभी एक हालतमे नही रहा करते, वे सर्वज्ञ भगवानकी प्राज्ञाएँ और अटल सिद्धान्त नही होते, उनमे समयानुसार बराबर फेरफार और परिवर्तनकी जरूरत हुआ करती है । इसी जरूरतने वसुदेवजी के समय और वर्तमान समय मे जमीन-आसमानकासा तर डाल दिया है । यदि ऐसा न होता तो वसुदेवजी के समय विवाहसम्बधी नियम-उपनियम इस समय भी स्थिर रहते और उसी उत्तम तथा पूज्य दृष्टि से देखे जाते जैसे कि वे उस समय देखे जाते थे । परन्तु ऐसा नही है और इसलिये कहना होगा कि वे सर्वज्ञ भगवान की आज्ञाएँ अथवा अटल सिद्धान्त नही थे और न हो सकते है । दूसरे शब्दोमे यो कहना चाहिये कि यदि वर्तमान वैवाहिक रीतिरिवाजोको सर्वज्ञ-प्रणीत सावदेशिक और सार्वकालिक अटल सिद्धान्त माना जाय तो यह कहना पडेगा कि वसुदेवजीने प्रतिकूल - प्राचरणद्वारा बहुत स्पष्टरूपसे सर्वज्ञकी श्राज्ञाका उल्लघन किया। ऐसी हालतमे प्राचार्यों द्वारा उनका यशोगान नही होना चाहिये था, वे पातकी समझे जाकर कलकित किये जानेके योग्य थे । परन्तु ऐसा नही हुआ और न होना चाहिये था, क्योकि शारत्रोद्वारा उस समय मनुष्योकी प्राय ऐसी ही प्रवृत्ति पाई जाती है, जिससे वसुदेवजी पर कोई कलक नही सकता । तब क्या यह कहना होगा कि उस वक्त वे रीति-रिवाज सर्वज्ञप्ररणीत थे और प्राजकलके सर्वज्ञ प्ररणीत अथवा जिनभाषित नही हैं ? ऐसा कहने पर श्राजकल