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वसुदेवका शिक्षाप्रद उदाहरण
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यद्यपि ये तीनो विवाह श्राजकलकी हवाके बहुत कुछ प्रतिकूल पाये जाते हैं तो भी, उस समय इन विवाहोंको करके वसुदेवजी जरा भी पतित नही हुए ।
पतित होना अथवा जातिसे च्युत किया जाना तो दूर रहा, तत्कालीन समाजने उन्हे घृरणाकी दृष्टिसे भी नही देखा । इनकी कीर्ति और प्रतिष्ठामे इन विवाहोसे जरा भी बट्टा या कलङ्क नहीं लगा, बल्कि वह उल्टी वृद्धिगत हुई और यहाँ तक बनी रही कि उसके कारण आज तक भी अनेक ऋषि-मुनियो तथा विद्वानोके द्वारा वसुदेवजी के पुण्य- चरित्रका चित्रण और यशोगान होता रहा । श्री जिनसेनाचार्य्यने हरिवशपुराणमे, वसुदेवजीकी कीर्तिका अनेक प्रकार से कीर्तन कर उन्हे यदुवशमे श्रेष्ठ, उदारचरित्र, शुद्धात्मा, स्वभावसे ही निर्मल-चित्तके धारक, अनन्य साधारण (जो औरोमें न पाया जाय) विवेकसे युक्त और ऐसे महान धर्मज्ञ तथा तत्त्ववेत्ता प्रकट किया है कि जिनके मुनि और श्रावकधर्मसम्बन्धी उपदेशको सुनकर बहुत से मिथ्यामती तापसियोने भी तत्काल ही अपना वह मिथ्यामत छोड दिया था और जैनधर्मका शरण लेकर उसके व्रतोको प्रहरण किया था। श्रीजिनदास ब्रह्मचारी भी अपने हरिवशपुरा में, वसुदेवजीका ऐसा ही यशोगान करते है और उन्हे 'महामति' आदिक लिखते है । साथ ही, उन्होने बलभद्रके मुखसे श्रीकृष्णके प्रति जो वाक्य कहलाया है उससे मालूम होता है कि वसुदेवजीका सौभाग्य जगत मे विख्यात था और उनकी सत्कीर्तिका खेचर और भूचर
शूद्रा शूद्र रेग वोढव्या नान्या स्वा ता च नैगम ।
वहेत्स्वा ते च राजन्य स्वा द्विजन्मा क्वचिच्च ता ।। १६-४७ - श्रादिपुराणे, जिनसेन:
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'श्रानुलोम्येन चतुस्त्रिद्विव कन्याभाजनामा एकत्रियवश ।" - नीतिवाक्यामृते, सोमदेव:
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