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विवाहसमुद्देश्य
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पड़ती हैं, अपने स्वार्थकी बलि देनी होती है और बहुतसे ऐसे काम भी करने पड़ते हैं जिनका करना उसे इष्ट नही होता और न वे उसके उद्द ेश्य ही होते हैं; परन्तु बिना उनके किये उसे अपने उद्देश्योंमें सफलता प्राप्त नही हो सकती, और इसलिये वह उन्हें लाचारीकी दृष्टिसे करता है। साथ ही, वह अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नही होता और न दूसरे राष्ट्रकी मोह-मायामें फँसता है । तब कही वह वर्षोंके बाद परतन्त्रताकी बेड़ी से छूटकर स्वतन्त्रताकी शीतलछायामें निवास करता है । इसी तरह पर उस आत्माको भी, जो कमके बन्धनसे छूटना चाहता है, अपनी उद्देश्य सिद्धिके लिये बडे बडे प्रयोग करने होते हैं और नाना प्रकार के कष्ट उठाने पडते हैं । उसे बन्ध-मुक्त होनेके लिये बन्धनमें भी पडना होता है, कर्मसे छूटनेके लिये कर्म भी करना पडता है, हानिसे बचनेके लिए हानि भी उठानी पडती है, पाप से सुरक्षित रहनेके लिये पाप भी करना होता है और शत्रुओसे पिढ बुडानेके लिये शत्रुम्रोका आश्रय भी लेना पडता है । परन्तु इन सब अवस्था
मे होकर जाता हुमा मुमुक्षु आत्मा अपने लक्ष्यसे कभी भ्रष्ट नही होता - पुद्गलके अथवा प्रकृतिके मोहजालमें कभी नही फँसता । वह कभी बन्धको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रुको मित्र स्वीकार नही करता । और न कभी इन बन्धादिक अवस्थाप्रोको इष्ट समझता हुआ उनमे तल्लीन ही होता है । बल्कि उसका प्रेम इन सब अवस्था से सिर्फ 'कार्यार्थी' होता है । कार्यार्थीका प्रेम कार्यकी हदतक रहता है। कार्यकी समाप्तिपर उसकी भी समाप्ति हो जाती है । इसलिए वह अपने किसी इष्ट प्रयोजनकी साधनाके निमित्त लाचारीसे इन बन्धादिक श्रवस्थान से क्षणिक प्रेम रखता हुआ भी बराबर निर्बन्ध, निष्कर्म, निहनि, निष्पाप और नि शत्रु होनेकी चेष्टा करता रहता है। इस विषयमें उसका यह सिद्धान्त होता है :
उपकारागृहीतेन शत्रुणा शत्रुमुद्धरेत् ।