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युगवीर - निबन्धावली
(१) धर्मप्रचार और समाजके उत्थानकी बराबर चिन्ता रखना और धार्मिक कार्यो मे सदेव योग तथा सहायता देते रहना ।
(१०) मितव्ययी ( किफ़ायती). बनना, परन्तु कृपरण नही होना । साथ ही, पूज्यकी पूजाका कभी व्यतिक्रम न करते हुए, बराबर अतिथि सत्कारमें उद्यमी रहना और उसे यथाशक्ति करना ।
प्रत्येक स्त्री-पुरुषको इन दस बातोको अपना 'कर्त्तव्य-कर्म' बना, लेना चाहिए, अपने समस्त श्राचार-व्यवहारका 'सूत्र' समझना चाहिये और विवाहके गठजोडेके समय इनकी भी 'गाँठ' बांध लेनी चाहिए।
अन्तरङ्ग -दृष्टि से विचार
यह तो हुआ बाह्य जगतकी दृष्टिसे विचार। अब अन्तरङ्ग जगत पर दृष्टि डालिये । अन्तरङ्ग जगत पर दृष्टि डालने से मालूम होता है कि, यह जीवात्मा श्रनादिकालसे मिथ्यात्व, राग, द्वेष, मोह, काम, क्रोध, मान-मद, माया, लोभ, हास्य, शोक, भय, जुगुप्सा, अज्ञान प्रदर्शन, अन्तराय और वेदनीय आदि सैकडो और हजारो कर्म से घिरा हुआ है, जिन सबने इसे बधनमें डालकर पराधीन बना रक्खा है और इसकी अनन्त शक्तियोका घात कर रक्खा है । इसीलिए यह आत्मा अपने स्वभावसे च्युत होकर विभाव-परिणतिरूप परिणम रहा है और अनेक योनियोमे परिभ्रमरण करता हुआ नाना प्रकारके दुख और कष्टोको भोग रहा है। इसका मुख्य और प्रधान उद्देश्य है 'बन्धनसे छूटकर स्वाधीनता प्राप्त करना' ।
परन्तु बन्धन से छूटना आसान काम नही है । एक राष्ट्र जब दूसरे राष्ट्रकी परतत्रतासे अलग होना चाहता है- स्वाधीन बननेकी इच्छा रखता है- तब उसे रातदिन इसविषय में प्रयत्नशील रहनेकी जरूरत होती है, बड़े बड़े उपायोकी योजना करनी पड़ती है, घोर सकट सहन करते होते हैं, बन्धनोंमें पड़ना होता है, हानियों उठानी