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विवाह-समुद्देश्य तरह वह सम्पूर्ण कोके बन्धनसे छूटकर मुक्त हो जाता है।
गृहस्थाश्रम भी कर्मबन्धनसे छूटनेके प्रयोगोंमेसे एक प्रयोग है और स्त्री पुरुष दोनों मुमुक्षु हैं -कर्मबन्धनसे छूटनेके इच्छुक हैंइसलिए उन्हें भी अपने लक्ष्यसे भ्रष्ट होकर गृहस्थाश्रमकी बधादिक अवस्थाप्रोको अपना स्वरूप न समझ लेना चाहिए, उन्हें सर्वथा इष्ट मानकर उनमे लवलीन न हो जाना चाहिए । बन्धको मुक्ति, कर्मको कर्माभाव, हानिको लाभ, पापको धर्म और शत्रको मित्र न मान लेना चाहिए। ऐसा मान लेनेसे फिर कर्मका बन्धन न छूट सकेगा। अन्तरग दृष्टिसे उनका भी प्रेम इन सब अवस्थाप्रोसे 'कार्यार्थी' होना चाहिए और उन्हे बराबर निबन्ध, निष्कर्म, निर्हानि, निष्कषाय और नि शत्रु होनेकी चेष्टा करते रहना चाहिए । साथ ही, उनका भी वही कटकोन्मूलन-सिद्धान्त होना चाहिए और उन्हे बडी सावधानीके साथ उस पर चलना चाहिए । उनका जानबूझकर गृहस्थीके बन्धनोमे पडना, आरभादिक पापोमे फँसना और कामादिक शत्रुप्रोका शरण लेना नरक-निगोद-तियंचादिकके कठोर बधनोसे बचने, सकल्प तथा अशुभ रागादि-जनित घोर पापोसे सुरक्षित रहने और प्रज्ञान-मिथ्यात्वादि प्रबल शत्रुप्रोसे पिड छुडानेके अभिप्रायसे ही होना चाहिए। उन्हें अपने पूर्ण ब्रह्मचर्यादि धर्मों पर लक्ष्य रखते हुए समस्त कर्म शत्रुओको जीतनेका उद्देश्य रखना चाहिए और उसके लिए बराबर अपना प्रात्म-बल बढाते रहना चाहिए । आत्माका बल शुभकर्मोंसे बढता है, और अशुभकर्मोसे घटता है । इसलिए .गृहस्थाश्रममे उन्हे अशुभकर्मोका त्याग करके बराबर शुभकर्मोका अनुष्ठान करते रहना चाहिए । गृहस्थाश्रममें गृहस्थधर्म-द्वारा आत्माका बल बहुत कुछ बढ़ाया जा सकता है। इसीलिए महर्षियोंने इस गृहस्थाश्रमकी सृष्टि की है । शुभकर्मोके द्वारा प्रात्म-बल बढ जाने पर गृहस्थोको, प्रेमपूर्वक ग्रहण किये हुए हाथके काटेके समान, गृहस्थाश्रमका भी त्याग कर देना चाहिए और