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युगवीर- निबन्धावली
पादलग्नं करस्थेन कंटकेनेव कंटकम् ||
अर्थात् - हाथमें कांटा लेकर जिस प्रकार पैरका काँटा निकाला जाता है, उसी प्रकार उपकार तथा प्रेमादिकसे एक शत्रुको अपना बनाकर उसके द्वारा दूसरे शत्रुको निर्मूल करना चाहिए। अभिप्राय यह कि, पैरमें लगे हुए काँटेको निकालनेके लिए पैरमें दूसरा कांटा घुमाने की जरूरत होती है और उस दूसरे काँटेको आदरके साथ हाथमें ग्रहरण करते हैं । परन्तु वह दूसरा काँटा वास्तवमे इष्ट नही होता - कालान्तरमे वह भी पैरमें चुभ सकता है—और न उसका चुमाना ही इष्ट होता है- क्योंकि उससे भी तकलीफ जरूर होती है, फिर भी उस अधिक पीडा पहुँचानेवाले पैरके काँटेको निकालनेके लिए यह सब कुछ किया जाता है । और कार्य हो चुकने पर वह दूसरा कॉंटा भी हाथसे डाल दिया जाता है। इसी सिद्धान्त पर मुमुक्षु श्रात्माको बराबर चलना होता है । उसका जानबूझकर किसी बघन में पडना, कोई पापका काम करना और किसी शत्रुकी शरणमे जाना दूसरे अधिक कठोर बन्धनसे बचने, घोर पापसे सुरक्षित रहने और प्रबल शत्रुग्रोंसे पिंड छुडाने के अभिप्रायसे ही होता है । यद्यपि उसे सम्पूर्ण कर्मशत्रुधोका विजय करना इष्ट होता है, परन्तु साथ ही वह अपनी शक्तिको भी देखता है और इस बात को समझता है कि यदि समस्त शत्रुम्रोको एकदम चैलेज दे दिया जाय -- सबका एक साथ विरोध करके उन्हे युद्धके लिए ललकारा जाय--तो उसे कदापि सफलता प्राप्त नही हो सकती। इसलिए वह बराबर अपनी शक्तिको बढानेका उद्योग करता रहता है। जब तक उसका बल नही बढता तब तक वह अपनी तरफसे प्राक्रमरण नहीं करता, केवल शत्रुनोंके श्राक्रमरणकी रोक करता है, कभी कभी उसे टेम्परेरी ( अल्पकालिक ) संधियाँ भी करनी पडती हैं । और जब जिस विषयमें उसका बल बढ जाता है तब उसी विषयके शत्रुसे लड़नेके लिए तैयार हो जाता है और उसे नियमसे परास्त कर देता है। इस