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युगवीर - निबन्धावली
( किराये के ) आदमियों द्वारा पूजनकी गरज पुण्य संपादन करना कही जाय तो वह भी निरी भूल है और उससे भी जैनधर्मके सिद्धाPrint अनभिज्ञता पाई जाती है। जैन सिद्धान्तोकी दृष्टिसे प्रत्येक प्राणी अपने शुभाशुभ भावोंके अनुसार पुण्य और पापका सचय करता है । ऐसा धेर नही है कि शुभ भाव तो कोई करे और उसके फलस्वरूप पुण्यका सम्बन्ध किसी दूसरे ही व्यक्तिके साथ हो जाय । पूजनमें परमात्मा पुण्य-गुणों के स्मरणसे आत्मामें जो पवित्रता श्राती और पापोसे जो कुछ रक्षा होती है उसका लाभ उसी मनुष्यको हो सकता है जो पूजन- द्वारा परमात्माके पुण्य-गुणोका स्मरण करता है । इसी बातको स्वामी समतभद्रने अपने उपर्युक्त पद्यके उत्तरार्धमे भले प्रकारसे सूचित किया है। इससे स्पष्ट है कि सेवक द्वारा किये हुए पूजनका फल कभी उसके स्वामीको प्राप्त नही हो सकता, क्योकि वह उस पूजनमें परमात्माके पुण्यगुरगोका स्मरणकर्ता नही है । ऐसी हालत मे नौकरोसे पूजन कराना बिलकुल व्यर्थ है और वह अपने पूज्य के प्रति एक प्रकारसे अनादरका भाव भी प्रगट करता है । तब क्या होना चाहिए ? जैनियोको स्वय पूजन करना और पूजनके स्वरूपको समझना चाहिए। अपने पूज्यके प्रति आदर-सत्काररूप प्रवर्त्तनेका नाम पूजन है। उसके लिए अधिक ग्राडम्बरकी ज़रूरत नही है । वह पूज्य के गुलोमे अनुरागपूर्वक बहुत सीधा सादा और प्राकृतिक होना चाहिए। पूजनमे जितना ही अधिक बनावट, दिखावट और आडम्बर से काम लिया जायगा उतना ही अधिक वह पूजनके सिद्धान्तसे गिर जायगा । जबसे जैनियोमें बहुप्राडम्बरयुक्त पूजन प्रचलित हुआ है तभीसे उन्हें पूजा के लिये नौकर रखनेकी जरूरत पड़ी है । अन्यथा जिनेन्द्र भगवानकी सच्ची और प्राकृतिक पूजाके लिए किरायेके श्रादमियोकी कुछ भी ज़रूरत नही है। जेनियो प्राचीन साहित्यकी जहाँतक खोज की जाती है, उससे भी यही मालूम होता है, कि पुराने जमानेमे जैनियोमे वर्तमान जैसा बहुप्राड