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नौकरोंसे पूजन कराना
१५७ म्बरयुक्त पूजन प्रचलित नहीं था। उस समय प्रहंतभक्ति, सिद्धभक्ति,
आचार्यभक्ति और प्रवचनभक्ति आदि अनेक प्रकारकी भक्तियो-द्वारा, जिनके सस्कृत और प्राकृतके कुछ प्राचीन पाठ अब भी पाये जाते हैं, पूज्यकी पूजा और उपासना की जाती थी। श्रावक लोग मदिरोमे जाकर प्राय, जिनेन्द्रप्रतिमाके सम्मुख, खड़े होकर अथवा बैठकर, अनेक प्रकारके समझमे पाने योग्य स्तोत्र पढते तथा भक्तिपाठोका उच्चारण करते थे और परमात्माके गुणोका स्मरण करते हुए उनमे तल्लीन हो जाते थे। कभी कभी वे ध्यानमुद्रासे.बैठकर परमात्माकी मूर्तिको अपने हृदयमन्दिरमे विराजमान करके नि शब्द-रूपसे गुरगोका चिन्तवन करते हुए परमात्माकी उपासना किया करते थे। प्राय यही सब उनका द्रव्य-पूजन था और यही भावपूजन । उस समयके जैनाचार्य वचन और शरीरको अन्य व्यापारोसे हटाकर उन्हें अपने पूज्यके प्रति, स्तुतिपाठ करने और अजुलि जोडने आदि रूपसे, एकान करनेको 'द्रव्यपूजा' और उसी प्रकारसे मनके एकाग्र करनेको 'भावपूजा' मानते थे, जैसा कि श्रीअमितगति आचार्यके निम्नलिखित वाक्यसे प्रगट है -
वचोविग्रहसंकोचो द्रव्यपूजा निगद्यते । तत्र मानससंकोचो भावपूजा पुरातनै ॥ १२-१२ ।।
-~-उपासकाचार, जबसे हिन्दुप्रोके प्राबल्यद्वारा जैनियो पर हिन्दूधर्मका प्रभाव पडा है और उन्होने हिन्दुप्रोकी देखादेखी उनकी बहुतसी ऐसी बातोको अपनेमे स्थान दिया है, जिनका जैनसिद्धान्तोसे प्राय कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, तभीसे जैनसमाजमे बहुअाडम्बरयुक्त पूजनका प्रवेश प्रारम्भ हुआ है और उसने बढते बढते वर्तमानका रूप धारण किया है, जिसमें बिना पुजारियोके नौकर रक्खे नहीं बीतती। आजकल इस पूजनमें मुक्तिको प्राप्त हुए जिनेन्द्र भगवानका आवाहन और विसर्जन भी किया जाता है। उन्हें कुछ मत्र पढकर बुलाया, बिठलाया,